Thursday 20 November 2014

अजनबी हवा

यह कविता मेने आज से करीब ६- ७ साल पहले तब लिखी थी जब हम लोग कॉलेज से पास आउट होकर अपनी अपनी नौकरियों की तलाश में या जॉइनिंग के लिए निकल रहे थे, जब बीता हुआ कॉलेज का हर लम्हा आँखों के सामने फ़्लैश बैक की तरह घूम रहा था। हम सभी ने कॉलेज में एडमिशन इसी दिन के लिए तो  लिया था की एक दिन अच्छी कंपनी में नौकरी करने जायेंगे, पर जॉब मिलने की ख़ुशी से ज्यादा इस बात का अफ़सोस था की कॉलेज में बने दोस्त बिछड़ जायेंगे, अलग अलग शहरों और कंपनियों में चले जायेंगे।  और वैसे भी किसी महान शख्स ने कहा है की दोस्त कॉलेज लाइफ तक ही मिलते  है उसके बाद जो मिलते है वो तो सिर्फ कलीग्स होते है।

आईये एक "एमेच्योर कवि" की हिंदी -उर्दू  मिश्रित कविता की चंद पंक्तियों का आनंद लीजिये, और अच्छी लगे या बुरी , कमेंट करके बताईये।


कदमो को जुदा जुदा सी लगे यह जमीं। 
इन सांसो को हवाएँ भी लगने लगी अजनबी। 

सर पर है जो आसमाँ वो भी लगता अब अपना नहीं। 
लम्हा लम्हा गुजरता यह वक़्त क्यों थमता नहीं। 

इन अजनबी हवाओं के साथ बाह चले है सभी। 
कुछ ख्वाब पुरे हुए, कईं और  ख्वाब बाकी है अभी। 

राहें बदल जाएंगी, ख्वाब बदल जायेंगे। 
पर इन ख्वाबो को पनाह देंगी ऑंखें वही। 

हमने न सोचा था की ये पल इतनी जल्दी आएंगे। 
हँसते खेलते ये  साल यूँही बीत जायेंगे। 

जिस डोर से जिंदगी को नचाया था हमने कभी। 
उसी डोर पर कठपुतलियों की तरह नाचेंगे हम सभी। 

जंदगी नए मोड़ पर खड़ी है अपनी हकीक़त का आईना लेकर। 
और एक हम है जो इस वक़्त को थाम रहे है हाथो से पकड़ कर। 

यह वक़्त अब नहीं थम पायेगा, पहिये की तरह घूमता जायेगा। 
इन चंद सालो का हर एक लम्हा यादों के सुनहरे पिंजरे में कैद हो जायेगा। 

कॉलेज से भले ही हम हो रहे है विदा। 
पर खुद को कभी न समझना दोस्तों से जुदा। 

हम फिर मिल जायेंगे, वही हंगामा फिर मचाएंगे। 
मिल कर फिर इस जिंदगी को उसी की डोर से नचाएंगे। 

-प्रितेश दुबे 


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