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Wednesday 23 May 2018

शादी के बाद के भी बाद

"शादी के बाद तुम बदल गए" ये बात तो सुन ही चुके होंगे आप अगर आपकी शादी को अच्छा खासा समय(१-२ साल) हो गया है तो। अब बात करते है शादी के बाद के भी बाद के बदलाव की। 

बच्चा, जी हाँ बच्चा होने के बाद ज़िन्दगी फिर एक अँधा मोड़ लेती है और आपकी दिशा और दशा पर कुछ प्रभाव डालती है। 

 फेसबुक पर in relationship, engaged with, married with, और ढेरो चेक-इन स्टेटस के बाद एक और माइलस्टोन आप अचीव करते है , blessed with baby girl /boy वाला माइलस्टोन। फेसबुक पर married with और honeymoon pictures  के कुछ साल बाद तक भी blessed with  वाला माइलस्टोन प्राप्त न करो तो हमारे रिश्तेदारों से ज्यादा फेसबुक परेशान हो जाता है की यार अभी तक कुछ हुआ क्यों नहीं। 

तो अगर आपसे किसी परीक्षा में प्रश्न पूछा जाये की बच्चा होने के बाद जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों पर प्रकाश डालिये तो उत्तर इस प्रकार लिखियेगा। 

बच्चा होने के बाद जीवन में निम्नलिखित बदलाव महसूस किये जाते है। 

१.  "बेबी" शब्द का प्रयोग अब कन्फ्यूजन पैदा करने लगता है की किसके लिए करे इसलिए इस सम्बोधन को अलविदा करना पड़ता है। 

२. अब ऑफिस से घर आते वक़्त लाने वाले सामान की लिस्ट में बहुत बड़ा बदलाव आ जाता है। शादी से पहले तो सीधा घर भी नहीं पहुंचते थे , शादी के बाद जल्दी घर पहुंचना पड़ा वो भी सब्जी भाजी लेके। किन्तु बच्चा होने के बाद तो रॉकेट की रफ़्तार से घर पहुंचना पड़ता है वो भी सब्जी भाजी फ़ल डायपर दवाई लेके।

३.  कुछ साल पहले पूछे गए सवाल "रि -वाइटल जैसी फालतू दवाई कौन लेता है" का जवाब मिल जाता है जब दिनभर ऑफिस में काम करने के बाद रात रात भर सिर्फ इसलिए जागना पड़ता है की हम बच्चे की माँ को जता सके की तुम अकेली नहीं परेशान हो।  

४. कुछ समय के लिए आपकी डिक्शनरी में से कुछ शब्दों को पूरी तरह मिटा दिया जाता है जैसे फिल्मे, टीवी सीरीज, स्पोर्ट्स मैच, नाईट आउट , पार्टी, आउटिंग, रोमांटिक डिनर (विथ वाइफ) वगैरह। 

५. एक बार बच्चा सो जाये ( चाहे दिन हो या रात)  फिर तो घर आर्मी ऑपरेशन की फील्ड बन जाता है , एक एक कदम फूंक फूंक के रखना पड़ता है। ऐसे में घर में बिखरे पड़े बच्चे के खिलौने लैंड माइन का काम कर सकते है। गलती से भी किसी चूं चूं करने वाले खिलौने पर पाँव पद गया तो धमाका हो सकता है। इसलिए एक बार बच्चा सो जाये तो घुसर फुसर करके ही काम चलाना चाहिए।

६. यही नहीं अगर बच्चा आपकी गोदी में सो गया तो ज़ाहिर सी बात है की उसको जैसे ही गोदी से निचे सुलाने जाओगे वो फिर उठ जायेगा। ऐसे में जब आप सफलता पूर्वक अपने बच्चे को गोदी से उतार के बिस्तर में सुला सको वो भी बगैर उसकी नींद ख़राब किये तो कसम से ऐसी राहत की साँस मिलती है जैसे हमने अपने हाथो से कोई बम डिफ्यूज़ किया हो।

७. पहले कहाँ आप इंटलेक्चुअल बनने की फ़िराक़ में quora.com, TedX.com, न्यूज़ पोर्टल्स इत्यादि खंगाला करते थे अब आपकी ब्राउज़िंग हैबिट्स के आयाम बदल जाते है। ले देके babycenter.com या दूसरी पेरेंटिंग साइट्स से आगे बढ़ नहीं पाते।

८. अच्छा, पहले के ज़माने में किन्नर लोगो को अपने आप भनक लग जाती थी की आपके यहाँ बच्चा हुआ है और वो आपके घर ताली बजाते हुए शगुन लेने पहुंच जाते थे। लेकिन आजकल वही काम ऑनलाइन शॉपिंग साइट्स ने शुरू कर दिया है। गलती से आप अगर कोई बेबी प्रोडक्ट देख लो तो ब्राउज़र नाम का चमचा सारे शॉपिंग साइट्स को खबर भिजवा देता है की आपके यहाँ बच्चा हुआ है। बस फिर क्या, आप फेसबुक चलाओ, या ट्विटर, कोई गेम खेलो या कोई मेल खोलो । हर जगह आपको ये साइट्स ताली बजाती हुई मिलेगी  की हमारे यहाँ से ये लेलो वो लेलो। आपके इनबॉक्स तक में राय मशविरे पहुंचने लगेंगे। 

९. सबसे बड़ा बदलाव तो आता है आपके और आपकी बीवी के बिच के वार्तालाप का। वो वाले "बेबी टॉक्स" असली वाले बेबी टॉक्स में बदल जाते है। 

10. अब तो फ़ोन की गैलरी में भी ये बेबी उस बेबी की जगह लेने लगता है।  

११. एक और बात, आपके जीवन के इतने सालो में जो न हुआ वो होने लगता है।  आपकी अब तक की उम्र में कितनी बार ऐसा हुआ है की कोई खूबसूरत सी बाला या बालाओ का झुण्ड अनायास ही आपकी तरफ मुस्कुराता हुआ लपक पड़े और बोले aweeeee.....shoo cute........ बताओ कितनी बार हुआ ? किन्तु आपका ये नन्हा फरिश्ता आपको इस वाली ख़ुशी का भी वरदान देदेता है आप जब भी अपने कॉलोनी, मोहल्ले, मॉल या बाजार में इसको लेके निकलो। 

थोड़ा गंभीर होकर  बात करे तो ईश्वर के इस वरदान के बाद जीवन में वाकई एक अभूतपूर्व परिवर्तन की अनुभूति होती है, मुझे तो शायद ईश्वर ने ज्यादा काबिल समझा और एक बेटी का वरदान दिया। मैंने अब तक शायद किसी बात से इतना गौरवान्वित महसूस नहीं किया जितना एक बेटी का बाप बन के किया।  १० महीने की हो चुकी है और कुछ ही दिनों में १ साल की हो जाएगी। उसके साथ ये एक साल कब और कैसे निकल गया पता ही नहीं पड़ा। 

Introducing my daughter my heartbeat Prisha Dubey 








Tuesday 14 June 2016

पहली बारिश



बारिश की पहली बौछार, बिजली की चमकार, मिट्टी की सौंधी महक और पहला -पहला प्यार। अरे अरे आप तो रोमांटिक होने लगे , रुकिए तो सही। श्रृंगार रस  से भरी ये बातें अब जवानी में अच्छी लगती है किन्तु बचपन में तो इन सबके मायने अलग ही हुआ करते थे।

वैसे तो इस पहली बारिश के मायने धरती पर निवास करने वाली हर प्रजाति के हर उम्र, लिंग, और व्यवसाय के हिसाब से अलग अलग हो सकते है। परन्तु मैँ आज संक्षिप्त में बचपन की ही बात करूँगा।

जून का आधा महीना बीत जाने के बाद जैसे ही मौसम सुहाना होने लगता, बादलों का झुण्ड आवारागर्दी करते हुए बरसने को बेचैन होता, बिजलियाँ लूप-झूप करने लगती वैसे ही हमारे दिलो की धड़कने बढ़ने लगतीं थी। यहाँ धड़कनो का ताल्लुक कतई रोमांटिक भावनाओ से नहीं है।  ये पहली बारिश संकेत होती थी गर्मी की छुट्टियां ख़त्म होने का, ये कड़कती बिजलियाँ कहती थी बंद करो ये क्रिकेट और गरजते बादल संदेसा लाते थे की अब स्कूल शुरू होने को है,और इसीलिए तेज़ होती थी धड़कने।



हर इंसान को ईश्वर का वरदान होता है की जो चीज वो टाल नहीं सकता उसके साथ ताल-मेल बैठा ही लेता है। फिर चाहे वो शादी हो, नौकरी हो या स्कूल। इसी प्रकार छुट्टियों का खत्म होना, स्कूल का खुलना और पढ़ाई का शुरू होना वो घटनाएँ थी जिन्हे टाला नहीं जा सकता था। इसलिए इन सब के साथ ताल-मेल बैठाया जाता था इस लालच के साथ की अब सब कुछ नया नया होने को है। नयी क्लास, नयी किताबें, नया बस्ता ( स्कूल बैग) नयी यूनिफार्म और भी कईं चीजे।

तब मिट्टी की खुशबू से ज्यादा अच्छी लगती थी नयी किताबों की महक, जिस प्रकार पहली पहली बूंदे सुखी पड़ी जमीन को भिगोती थी उसी प्रकार नयी-नयी पेंसिल से कोरी कोरी नोटबुक पर नाम लिखा जाता था। 
नाम -> प्रितेश दुबे 
विषय -> हिंदी 
कक्षा ->४ थी 
 जैसे पहली बारिश धरती को धानी चुनर से ढँक देती थी उसी प्रकार हम अपनी किताबो को भूरे कवर से ढंका करते थे। स्कूल खुलने के समय की खरीदी किसी शादी ब्याह की शॉपिंग से कम न होती थी। घर का माहौल स्कूलमय हो जाया करता था। पापा किताबो पर कवर चढ़ाते और माँ यूनिफार्म की फिटिंग सही करती। और हम अपने नए बस्ते को ज़माने में व्यस्त रहते। 
और हाँ WWF के पहलवानो वाले, डिज़्नी के कार्टून वाले और क्रिकेटर्स के फोटो वाले स्टिकर्स का तो बोलना भूल ही गया। 

ऐसा नहीं है की पहली बारिश सिर्फ हमारी धड़कने तेज़ करती थी बल्कि पापा को भी मन ही मन परेशान करती थी। स्कूल खुलने पर हमारा नया बस्ता तो नयी किताबो-कॉपियों से भर जाता था परन्तु शायद उनका बस्ता (बटुआ)खाली हो जाया करता था। जो चीज टाली  नहीं जा सकती उसके साथ ताल-मेल बिठाना भी तो उन्होंने ही सिखाया था तो वो भी इस परिस्थिति से ताल-मेल बैठा ही लेते थे हर बार। 

बारिश तब भी आती थी, बारिश अब भी आती है। स्कूल तब भी खुलते थे, स्कूल अब भी खुलते है। पापाओं की जेब तब भी खाली होती थी और अब भी खाली होती है। सब कुछ वैसा का वैसा है सिवाए बचपन के। बचपन अब वैसा नहीं रहा।



Thursday 28 January 2016

बड़े बाबू

डिस्क्लेमर:   हो सकता है की यह लेख मेरी कोरी कल्पना का नतीजा हो, हो सकता है इसका किसी जीवित या मृत व्यक्ति से कोई लेना देना न हो।  अगर यह लेख पढ़ते समय आपका सामना किसी जीवित या मृत व्यक्ति के व्यक्तित्व से हो जाये तो हो सकता है यह भी संयोग मात्र हो।
और एक बात, इस लेख को लिखते समय किसी भी जीव- जंतु, पेड़-पौधे या कोई भी प्राणी को कोई क्षति नहीं पंहुचायी गयी है।

तो बैठे बैठे क्या करे, करना है कुछ काम, आओ बतोलेबाजी करे लेकर बाबूजी का नाम।

एक होते है बाबूजी, जो हर फिलम, टीवी और लगभग हर इंसान के असली जीवन में होते है। जो कभी नरम  तो कभी सख्त, कभी अच्छे तो कभी खडूस, कभी "कूल" तो कभी संस्कारी होते है। ऐसे सभी बाबूजी को प्रणाम करके बात करते है बड़े बाबू की।

 जी हाँ, बड़े बाबू वही जो ज्यादातर सरकारी दफ्तरों में सुनाई दिखाई पड़ते है। जिन तक पहुँचना मुश्किल ही नहीं कभी कभी नामुमकिन होता है। ऐसे बड़े बाबू सिर्फ सरकारी दफ्तरों में ही नहीं, प्राइवेट दफ्तरों, स्कूलों, अस्पतालों, बैंको और यहाँ तक की शादियों में भी फूफा के रूप पाये जाते है।

हमने अपने पिछले लेख में आपको एक प्रजाति से अवगत कराया था जिसे मैनेजर कहते है। अब जैसे शेर जो है वो बिल्ली की नसल का है , छिपकली जो है वो डाईनासौर के खानदान की है और जैसे भेड़िया, कुत्तो के कुटुंब का प्राणी है ठीक वैसे ही मैनेजर जो है वो बड़े बाबू की ही नस्ल के प्राणी होते है किन्तु बड़े बाबू के आगे कुछ नहीं लगते। बड़े बाबुओं की तुलना में मैनेजर निहायती सीधा, सरल और उपजाऊ प्राणी होता है।



कुछ एक अपवादों (Exceptional Cases) को छोड़ दो तो बड़े बाबू बनने के लिए ज्यादा हुनर या किसी विशेष गुण या अत्यधिक परिश्रम करने की आवश्यकता नहीं होती है। चाहिए तो सिर्फ एक लम्बा कार्यकाल,  ४० पार की उमर और एक लम्बी जबान। जी हाँ कार्यकाल लम्बा होगा तो उसको अनुभव माना जायेगा (आप कहोगे की लम्बा कार्यकाल होना और अच्छा अनुभव होना अलग है तो मैं कहूँगा की ऐसा आप सोचते है, बड़े बाबू नहीं ) और अगर जबान लम्बी और टिकाऊ होगी तो अपने से ऊपर वालो के _ _ _ _ (रिक्त स्थान अपने विवेक से भर ले ) चाटने के अलावा अपने "लम्बे और अच्छे अनुभव" की दास्तान (धीरे से इसे डींगे हांकना पढ़े) सुनाने के काम आती है।दास्तान बोले तो अपनी पिछली पोस्टिंग या प्रोजेक्ट के बहादुरी, पराक्रम, कर्तव्यपरायणता  और हुनर की किस्से। याने की जंगल में मोर नाचा, किसने देखा वाली बात।

केवल इन दो गुणों(लम्बा कार्यकाल और जबान) की बदौलत इंसान कितना ऊपर जा सकता है यह बात समझने के लिए आपको न्यूटन या आईन्स्टाईन होने की आवश्यकता तो है नहीं। समझ गए न ?

यह तो बात हुयी गुणों की तो भईया जहाँ सुख है वहां दुःख है, जहाँ हँसी है वहाँ रोना भी है और जहाँ दिन है वहां रात है ऐसे ही जहाँ गुण है वहाँ अवगुण भी होंगे ही। सोचिये भला की बड़े बाबुओं में क्या क्या अवगुण होते होंगे ?नहीं नहीं ऐसे महापुरुषों में कोई भी अवगुण भला कैसे हो सकता है ये तो सिर्फ गुणों और सद्गुणों की खदान होते है।

चलिए हम उलटे क्रम (Chronological order) में बातें करते है अपने बड़े बाबुओ के Extra ordinary सद्गुणों  की और इन्ही सद्गुणों के महत्ता और ऐसे बाबुओ की उपलब्धता के आधार पर उनकी वरीयता भी इसी क्रम में रखते चले जायेंगे ।

४ . भुक्कड़ बाबू :


कुछ बड़े बाबू जो होते है न उनके दिमाग में सिर्फ खाना-पीना रहता है। ऐसे बाबू सुबह दफ्तर आते ही काम से पहले चाय पकौड़े निपटाएंगे।  दोपहर में खुद के डिब्बे  के साथ साथ औरो के डिब्बो को भी चट कर जायेंगे। और फिर शाम की चाय के साथ समोसे और कचोरी अलग। इनमे एक विशेष खूबी होती है, कहीं भी प्लास्टिक की थैली की चर -चर  की आवाज़ सुनते ही पहुंच जायेंगे इसी आस में की कुछ खाने का खुला है। यही नहीं अगर गलती से किसी का खाने का डिब्बा लीक हो रहा हो तो खुशबू से जान लेंगे की आज कोई बिरियानी लेके आया है। रात होते ही पीने की बातें और बातों के साथ यह कवायद भी शुरू कर देंगे की कहीं फ्री की पीने को मिल जाये तो जन्नत नसीब हो । ऐसे गुणों के स्वामी बड़े बाबू आपको बहुतायत में मिलेंगे इसीलिए  जनरल कैटगरी के ऐसे महान लोगो को अपने क्रम में अंतिम स्थान पर रखा है।

३ . ठरकी बाबू :

कौन आदमी ठरकी नहीं होता जनाब, जब संसद में बैठा सफेदपोश नेता भी अपने फ़ोन पे "उस टाइप" के वीडिओज़ देखता पाया जाता है तो बड़े बाबू तो फिर भी एक मामूली से दफ्तर में बैठे बाबू है। ठरकी हो सकते है।इस पूरी दुनिया में आदमी ही एक ऐसा प्राणी है जिसकी ठरक उम्र, ओहदे और पैसे के साथ बढ़ती ही जाती है। बड़े बाबू इस बीमारी से कैसे अछूते रह सकते है। जैसे कुछ बड़े बाबुओ के दिमाग पर खाना-पीना हावी रहता है उसी प्रकार कुछ लोगो के दिमाग पर सिर्फ लड़कियां ही हावी रहती है। ऐसे बड़े बाबुओ को अगर फिरंगी लड़कियों (औरतें भी) से रू-बरु करवा दो तो इनके दिमाग के कोने कोने में ऐसे रस का स्त्राव शुरू हो जाता है जो इनके इमोशन्स को बेकाबू करने की जी-तोड़ कोशिश करता है। इस सारी मानसिक जद्दोजहद के अंत में बड़े बाबू अपने छोटे बाबू को सिर्फ इतना कह पाते है की "बस यार जैसे तैसे कंट्रोल करता हूँ, नहीं तो मन तो करता है की............ " हालांकि कुछ बड़े बाबू इस जद्दोजहद में हार जाते है और अपने इमोशन के हाथो अपनी इज्जत भी गँवा बैठते है।  ऐसे चरित्रवान बाबू बहुतायत में न मिले किन्तु दुर्लभ भी नहीं है। इसीलिए हमारी लिस्ट में तीसरे स्थान पर है।

२ . आवारा-नाकारा बाबू : ( ज़ोम्बी बाबू )

यह वह श्रेणी है जिसके अंतर्गत आने का नसीब हर किसी का नहीं होता। मतलब एक तो आपको बड़े बाबू के पद से नवाजा जाये, और ऊपर से कुछ काम धाम न करने पर भी कोई कार्रवाई न हो। ऐसे तक़दीरवाले बड़े बाबू जिस भी दफ्तर, कॉर्पोरेट में होते है वहां इनकी चर्चाएं भी खूब होती है। इन्हे अगर आम जनता के साथ बैठने को कहा जाये तो बिदक जाते है , पर्सनल केबिन जरूरी होता है। इस कैटगरी के लोग कभी कोई काम ठीक से कर नहीं पाते और हमेशा शिकार की तलाश में रहते है जो इनका काम कर दे और इनके बदले की गालियां भी सुन ले। इन्हे कुछ लोग ज़ोम्बी बाबू भी कहते है क्योंकि ये कुछ प्रोडक्टिव काम तो नहीं करते अपितु इधर उधर भटकते रहते है और दुसरो के कामो में उंगली करते है। ऐसे बड़े बाबू हमारी लिस्ट में दूसरी वरीयता पर आते है।

१. सर्वगुण संपन्न बड़े बाबू :

हमारी लिस्ट के सर्वोच्च पायदान पर है वो बड़े बाबू जिनमे उपरोक्त सभी गुण प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते है। इतना ही नहीं इन सभी गुणों के अलावा इनमे और भी कईं ख़ास बातें होती है जैसे चिन्दिगिरी(अपनी चाय के पैसे दुसरो से दिलवाना), आलसीपन(दफ्तर में सोते रहना), फटीचरी (पैसा कमाते हुए भी दिखाना भी इनसे गरीब कोई नहीं )इत्यादि। ऐसे छोटे मोटे गुणों का बखान तो हम कर ही नहीं रहे है। इतनी सारी विशेष कलाओं के धनि हमारी इस लिस्ट में प्रथम स्थान पर विराजमान है।

 किन्तु इस प्रजाति के बड़े बाबू सर्वगुण संपन्न बहु की भांति ही दुर्लभ है, किसी किसी बदनसीब के दफ्तर में ही मिलते है। पर जिसे भी मिलते है वो अगर इन्हे हँसते हँसते सह जाये, इनके साथ रहकर अपने सारे काम सकुशलता से निपटाता जाये तो उसे वीरता पुरूस्कार से नवाज़ा जाता है।

 इन सभी प्रकार के बड़े बाबुओ के बीच कुछ अपवाद भी पाये जाते है। यह अपवाद बड़ी लगन और श्रद्धा से, मेहनत और जूनून से अपना काम करते है। ऐसे बड़े बाबुओ को भी प्रणाम।

हमारे देश के सरकारी - प्राइवेट बड़े बाबुओ की यह चर्चा अब यहीं समाप्त करते है, फिर मिलेंगे अगले मसालेदार लेख के साथ। और हाँ आप भी अगर बड़े बाबू बनो तो हो सके तो मेरी उपरोक्त बातो को झूठा जरूर साबित करना।

एक मिनट  ..........
"क्या कहा आपने ? , IT  इंडस्ट्री मैं ?" अरे जनाब बिलकुल, यहाँ तो ऐसे बड़े बाबुओ की भरमार है। किसी भी प्रोजेक्ट में जाईये असल काम करने वाले सिर्फ २ या ३ मिलेंगे परन्तु उनके ऊपर ६-८  बड़े बाबू बैठे मिल जायेंगे। गौर से अपने आसपास देखिये और लेख फिर से पढ़िए, क्या पता आपके बाजु में ही कोई बड़ा बाबू बैठा हो।


सभी चित्र गूगल बाबू की कृपा से

Saturday 28 November 2015

मैनेजर


मैनेजर
यह वह प्रजाति है जो हर दफ़्तर, हर संस्था, हर दूकान और यहाँ तक की गली नुक्कड़ों पर हो रही चर्चाओं में भी पायी जाती है। दफ़्तर सरकारी हो या प्राइवेट आपको भिन्न भिन्न प्रकार के मैनेजर हर जगह देखने सुनने को मिलेंगे।

अगर आपको इस प्रजाति के विशेष गुणों की चर्चा सुननी हो तो किसी भी दफ़्तर के बाहर की चाय-सुट्टे की टपरी पर जाकर आईये, आपको मैनेजर के भांति भांति के लक्षणों, गुणों के बारे में पता पड़ेगा। वैसे मैनेजर खुद अपने बारे में इतना नहीं जानता होगा जितना की वो चाय की टपरी वाला जानता है।  ऐसा भी माना जाता है की जिस वक़्त कुछ कर्मचारी चाय के साथ सुट्टा मार रहे होते है ठीक उसी वक़्त उनके मैनेजर की माताजी और बहन जी को गज्जब की हिचकियाँ आ रही होती है। खैर इसके पीछे के साइंस को मत समझिए, जाने दीजिये।



आपको एक बात बता दे की कईं कर्मचारीगण अपने जीवन में एक बार मैनेजर बनने का हसीं ख्वाब जरूर देखते है। यह बिलकुल उसी प्रकार है जैसे कॉलेज में फ्रेशर अपने सीनियर द्वारा हुए अत्याचारों की भड़ास निकालने के लिए खुद सीनियर बनने के ख्वाब बुनता है। फिर जिस प्रकार उस कर्मचारी ने अपने मैनेजर का "तथाकथित" सम्मान किया, उसकी हर बात को ब्रह्मवाक्य मानकर पूर्णतः पालन किया, कभी उसकी किसी बात का विरोध नहीं किया, उसी कर्मचारी का मैनेजर बनने पर अपनी निचले कर्मचारियों से भी यही सब करने की अपेक्षा करना स्वाभाविक है।

मैनेजर होना बिलकुल उस कढ़ाई की तरह है जो भट्टी पर रखी होती है और जिसमे तरह तरह के प्रोजेक्ट पकवान की तरह पकते रहते है। इस कढ़ाई में सामान्य कर्मचारी तेल या घी की तरह गरम होते है और इस गर्म कढ़ाई को कोसते है। किन्तु बेचारी कढ़ाई भी अपनी निचे लगी भट्टी की आग को झेल रही होती है। ऐसे में कढ़ाई का मजबूत होना बहुत आवश्यक है। कभी कभी जब कढ़ाई आग सहन न कर पाये और पिघल के पकवान में मिश्रित होने लगे तो पकवान स्वादिष्ट नहीं रह पाते है और कसैले स्वाद के लिए कढ़ाई को ही जिम्मेदार ठहराया जाता है। इसलिए आग इतनी भी नहीं बढ़नी चाहिए की कढ़ाई को कढ़ाई न रहने दे और पकवान को ज़हर बना दे।

इसीलिए कह रहे है की मैनेजर होना आसान नहीं है साब, बहुत मुश्किलें है। ऊपर निचे आगे पीछे हर जगह से तपना पड़ता है। अगर आपको कोई ऐसा कर्मचारी मिले जो १०-२० साल नौकरी करने के बाद भी मैनेजर न बन पाया हो और एक सामान्य कर्मचारी का जीवन जी रहा हो तो उसे मुर्ख मत समझिए। मेरा यकीन मानिए उस महान आत्मा को जरूर इस कढ़ाई वाले ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हो गयी होगी।


दुनिया के समस्त मैनेजर प्रजाति के लोगो को समर्पित।

डिस्क्लेमर: यह पोस्ट किसी भी प्रकार से प्रायोजित पोस्ट नहीं है और न ही इसका आने वाले अप्रैज़ल साईकल से कोई लेना देना है ।


Tuesday 11 August 2015

ड्रोन इन इंडिया

इस वक़्त जबकि आप यह लेख पढ़ रहे है दुनिया के किसी हिस्से में कोई ड्रोन किसी देश के सिपाहियों की जासूसी कर रहा होगा। या  किसी सुन्दर से द्वीप पर सूर्यास्त का चित्र ले रहा होगा या फिर किसी की टेबल पर कोई ड्रोन बियर की बोतल सर्व कर रहा होगा। यह भी हो सकता है की कोई ड्रोन किसी किशोर बालक का भेजा हुआ लाल गुलाब बाजू वाली बिल्डिंग की बालकनी में खड़ी किशोरी बाला के हाथो में  पंहुचा रहा होगा। बहुत कुछ हो रहा होगा और बहुत कुछ हो सकता है इस बारे में खोज चल रही होगी।

आगे बढ़ने से पहले एक बात साफ़ साफ़ बता दूँ की मैं यहाँ महाभारत के आचार्य द्रोण की बात नहीं कर रहा हूँ और न ही २००८ में आयी इसी नाम की एक शताब्दी की सबसे घटिया फिल्म की बात कर रहा हूँ ( आधे से ज्यादा लोग तो जानते भी नहीं होंगे की द्रोणा नाम की कोई फिल्म आयी थी। )

दर-असल मैं बात कर रहा हूँ रिमोट से चलने वाले हेलीकॉप्टरनुमा अतिबुद्धिमान यन्त्र की जिसे ड्रोन कहा जाता है। जी हाँ वही जो आपने "IIN" के विज्ञापन में देखा था।


टेक्नोलॉजी से हमारे जीवन में कईं क्रांतिकारी परिवर्तन हुए है। ज्यादा कुछ नहीं तो एक स्मार्ट फ़ोन को ही ले लीजिये फ़ोन न हुआ मुआ हमारे जीवन का रिमोट कंट्रोल हो गया।

ड्रोन भी बस इसी तरह से लोगो के जीवन में क्रांतिकारी बदलाओ लाने की क्षमता रखता है। आपने खबर में पढ़ा सुना ही होगा की ऑनलाइन शॉपिंग की सबसे बड़ी वेबसाइट अमेज़न ने अपने उत्पादों की डेलिवरी ड्रोन से करवाने की सफल टेस्टिंग की है। अब कोई भी सामान इसके ज़रिये मंगवाया / भिजवाया जा सकता है। है न कमाल की चीज। अब सोचिये की अगर ड्रोन का इस्तेमाल हमारे देश में धड़ल्ले से शुरू हो जाये तो भला क्या क्या हो सकता है ? सोंचिये।

चलिए आपको कल्पनाओ की उड़ान में ड्रोन की उड़ान से अवगत कराते है।

अब सोनू की मम्मी चिल्ला चिल्ला के सोनू को यह नहीं बोलती की जा बेटा ५ रुपये का धनिया मिर्ची ले आ। बलकि अब  वो ड्रोन के पंजो में ५ का सिक्का फंसाती है और सब्जी वाले के ठेले के कोआर्डिनेट सेट करके भेज देती है। २ मिनट में उधर से घुन घुन करता हुआ ड्रोन धनिया मिर्ची लेके हाजिर हो जाता है ।

पोर्न के बैन होने से बोखलाए लोंडे अब ड्रोन को खुला छोड़ देते है और बिल्डिंग दर बिल्डिंग तांका  झांकी करके किसी के बैडरूम से लाइव स्ट्रीमिंग देखते है।

अपने बंटी, रिंकू, बिट्टू और सोनू की गैंग जब भी क्रिकेट खेलती है और हरे रंग की कॉस्को की टेनिस बाल बड़ी बड़ी हरी झाड़ियों में जब खो जाती है तो ड्रोन की मदद से वो तुरंत उसे ढूंढ लाते है। इतना ही नहीं जब सोनू सिक्सर मार के गेंद को खडूस माथुर अंकल की बालकनी में पहुंचा देता है तब भी ड्रोन जाके गेंद को उठा लाता है।

मेरा बॉस अब एक मच्छर जितना बड़ा ड्रोन अपने केबिन से छोड़ता है और पता लगा लेता है की कौन काम कर रहा है और कौन सोशल नेटवर्किंग कर रहा है।

यु. पी में लोगो की जान को अब कम ख़तरा रहता है। बिजली के तारो पे बंगी टांगने का काम अब ड्रोन करने लगे है और इतना ही नहीं जब भी उड़न दस्ते आने वाले होते है ड्रोन आप ही तारो से बंगी  निकाल देते है।

जेठालाल अब सूरज को पानी देने बाहर नहीं जाता वो घर में, बाथरूम में या बैडरूम में बैठे बैठे ड्रोन की मदद से ही बबीता जी के दर्शन कर लेता है।

इधर हामिद ईद के मेले में से अपनी दादी के लिए चिमटा नहीं एक ड्रोन खरीदना चाहता है।

और अब बिजिली के तारो पर, नीम और पीपल के बड़े पेड़ो पर पतंगे उलझी हुयी नहीं मिलती, मिलते है तो फंसे हुए, भटके हुए, बिना बैटरी के बेजान ड्रोन्स।


चलिए  कल्पनाओ से बाहर आते है।


तो देखा आपने किस तरह से ड्रोन हमारे जीवन के दरवाजे पर क्रांतिकारी बदलाओ की दस्तक दे रहे है। हंसी मजाक की बात छोड़ भी दें तो ड्रोन वाकई में इंसानी जीवन को एक बेहतर दिशा में ले जाने में सक्षम है।

आज वैज्ञानिक इस विषय पर इतना शोध कर रहे है की आने वाले समय में ड्रोन हर आकार-प्रकार और शकल सूरत में हमारे आस पास घुन्न घुन्न करते फिरेंगे।

नमूने के तौर पर जटिल शल्य क्रिया (मेडिकल ऑपरेशन ), बड़ी छोटी पाइप लाइन की मरम्मत, खेतो में सिंचाई-बुवाई, तबेलों में जानवरो की देखरेख, जंग के मैदान और पहाड़ी गाँवो में दवाईयां पहुँचाने से लेकर कटरीना - रणबीर के हॉलिडे के सीक्रेट फोटो लेने तक के सारे काम ड्रोन करेगा। 

दूसरा पहलू यह भी है की आपकी हर एक्शन, हर बात, हर शब्द कही न कहीं रिकॉर्ड हो रहा होगा, कोई छोटा मोटा ड्रोन सदैव आपकी निगरानी कर रहा होगा और यही डेटा और इनफार्मेशन सदा सदा के लिए इंटरनेट पर उपलब्ध करवा रहा होगा। कोई चोर अपने टारगेट घरो की अच्छे से पहचान कर पायेगा। "एम एम एस कांड" अब ड्रोन वीडियो कांड बन के वायरल होने लगेंगे। सुरक्षा के लिहाज से आपको सदैव चौकन्ना रहना पड़ेगा।इत्यादि कईं प्रकार की तमाम वो हरकते जो नहीं होना चाहिए आसानी से की जा सकेंगी।

किन्तु जैसे बचपन से  हम हिन्दी के पेपर में "विज्ञान - वरदान या अभिशाप" पर निबंध लिखते आये है वैसे ही "ड्रोन- वरदान या अभिशाप" पर निबंध लिखा करेंगे। कहने का तात्पर्य यह है की जहाँ देव है वहां दानव है, जहाँ बुद्धि है वहीं कुबुद्धि है और जो एक पानी की बून्द सीपी का मोती बन सकती है वही पानी की बून्द किसी जहाज़ को डूबा सकती है। टेक्नोलॉजी और विज्ञान तो दिन प्रतिदिन उन्नत होते जा रहे है।इंसानी जीवन को सुखद और समृद्ध बनाने के लिए निरंतर नए आविष्कार आते जा रहे है। परन्तु इन्हे इस्तेमाल करने की नियत/इरादे/इंटेंशन्स में कोई बदलाओ नहीं आ रहा है। जब नियत बदलेगी तभी सभ्यता समृद्ध होगी। सब कुछ आप और हम पर निर्भर करता है।इसीलिए आने वाली पीढ़ी की नियत की प्रोग्रामिंग अच्छे से करे और एक उन्नत और समृद्ध भविष्य की कामना करे।



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चित्र : हमेशा की तरह गूगल के सौजन्य से







Monday 9 March 2015

परीक्षा की तैयारी


मार्च का महीना, फागुन की बयार, क्रिकेट का सीजन और पहला पहला प्यार लेकिन इन सब पर बैरन परीक्षा की मार।

अगर आप यह लेख पढ़ पा रहे है(मतलब अगर आप पढ़े-लिखे है) तो उपरोक्त पंक्ति को आप अच्छे से समझ पा रहे होंगे(मतलब कभी कोई परीक्षा दी ही होगी)। परीक्षाओ का मौसम चल रहा है। २०-२० क्रिकेट भी चालु है और अभी अभी बसंत बीता और फागुन आया है।  परीक्षा जैसी मनहूस चीज के लिए ऐसा समय जिसने भी चुना वो बड़ा ही नीरस किसम का इंसान रहा होगा। खैर छोड़िये, बात करते है परीक्षा की तैयारियों की। विशेषकर हमारे जमाने(90s) की तैयारियों की। जैसे जैसे परीक्षा नज़दीक आती थी, वैसे वैसे दिलो-दिमाग की हालत उस दूल्हे जैसे होने लगती थी जो आज ही ब्याहने जा रहा हो।  परीक्षा के बाद मिलने वाली गर्मी की छुट्टियों की खुशियां तो मन में रहती ही थी साथ ही बालको को फ़ैल होने का और कन्यायों  को १००/१०० न ला पाने का डर भी रहता था।

परीक्षा शुरू होने से कुछ ही दिनों पहले जैसे ही प्रिपरेशन लीव पड़ती थी  हम बनाते थे  एक "टाइम-टेबल ", चिपकाते थे उसे वहां जहाँ हमारी नजर बार बार पड़े। और ये टाइम-टेबल कुछ इस तरह से होता था :

सुबह ५ बजे उठना और थोड़ी सी खिट -पिट करके जता देना की हाँ उठ गए है।  ५ से ७ पढ़ना या लाइट जाने का इन्तेजार करना, जैसे ही लाइट जाये तुरंत सो जाना। ८-९ बजे उठकर घरवालो को बताना की कैसे आज ४ बजे से ७ बजे तक पढ़ाई करी। फिर नहाना -धोना(अगर मूड हुआ तो), खाना पीना और दोस्त के घर पढने जाना और वहां जाकर क्या पढ़ना यह आपको अच्छे से पता है। दोस्त के घर से सीधे ट्यूशन जाना। ट्यूशन पर थोड़ा पहले पहुँचना और "उसका" इन्तेजार करना।वो आ जाये तो क्लास ख़त्म होते ही उससे बात करने की फिर एक आखिरी नाकाम कोशिश करना।

स्कूल में हो न हो ट्यूशन में हमारी अटेंडेंस शत प्रतिशत रहती है। हर रोज इसी आस में जाते है कि आज तो बात कर लूंगा, हालांकि अक्सर ऐसा करते करते साल गुजर जाता है और बात वहीं रह जाती है।  घर आके मूड फ्रेश करने का कह के थोड़ा खेलना उसके बाद जहां सुबह किताब बंद हुयी थी वहीं से आगे बढ़ने की "कोशिश" करना। कईं बार किताब का एक पन्ना एक तनहा जिंदगी जैसा लगता है, जो आसानी से गुजरती नहीं। खैर थोड़ा पढ़ के खाना खाके फिर मूड फ्रेश करना पड़ता है टीवी देख कर। अब चूँकि सुबह जल्दी उठना है तो जल्दी सोना पड़ेगा।

यही सब करते करते आ जाती है मुई परीक्षा। घर वाले, रिश्तेदार, आस-पड़ोस सभी एक ही सवाल पूछते है , "हो गयी तैयारी परीक्षा की ?" हम भी जोर शोर से कहते है हाँ हाँ एक दम फर्स्टक्लास तैयारी हो गयी।
और हमारी तैयारी होती थी कुछ इस तरह :

यूनिफार्म पर इस्तरी कर ली जूते पोलिश कर लिए और साइकिल की एक मरम्मत करवा ली। नया रेनॉल्ड्स 045 फाइन कर्बर या रोटोमैक (लिखते लिखते लव हो जाये वाला) या सेलो जैल पेन और उसकी २ एक्स्ट्रा रिफिल खरीद ली। नया शार्पनर और रबर खरीदा। नयी नटराज या अप्सरा( औकात के हिसाब से लगा लो ) पेन्सिल शार्प करके रखी। एक कम्पास बॉक्स* लिया जिसमे नया स्केल*, चांदा*, डे-टांगा* पहले से आया था।

एक नया क्लिप वाला पुष्टां* खरीदा। पुष्ठे पर परीक्षा का टाईमटेबल चिपकाया। कम्पास बॉक्स में सारी आयटम अच्छे से चेक करके रखी और प्रवेश पत्र भी उसी में ठूस लिया। २-३ बार इन सब चीजो को बारी बारी से चेक किया और हो गयी हमारी परीक्षा की तैयारी।आजकल के बच्चे तो खामखाँ का टेंशन लेते है।


*

ग्लोसरी:
क्लिप वाला पुष्टां= clipboard
चांदा = Protractor,
डे-टांगिया= Divider or Compass,
कम्पास बॉक्स= Geometry box,
स्केल= Ruler


और हाँ ....... चित्र इंटरनेट के सौजन्य से।


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