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Thursday 7 March 2019

देश भक्ति





  देश भक्ति , यह वो हार्मोन है जो हम भारतियों की रगो में आम तौर पर स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस  या भारत पाकिस्तान के मैच वाले दिन खून बन कर दौड़ता है। परन्तु पिछले कुछ दिनों से हम लोगो में ये पुरे ऊफान पर है।  भावनाओ का ज्वर मचल रहा है , कुछ कर गुजरने के लिए बेताबी बढ़ रही है। अपनी इसी बेताबी को शांत करने के लिए कई लोग ट्विटर, फेसबुक, यूट्यूब का सहारा ले रहे है तो सोचा क्यों न मैं  भी अपने भीतर की बौद्धिक गैस का पाद सोशल मीडिया पर छोड़ दूँ।

जी सही पकडे है, The keyword here is "बौद्धिक पाद". आजकल हर कोई सोशल मीडिया पर पाद के चला जाता है।  इसके बारे में अगली पोस्ट ( पोस्ट को पाद पढ़ सकते है ) में विस्तार से बताऊंगा।  

हाँ तो हम बात कर रहे थे देश भक्ति की तो क्या है ये देश भक्ति ? आने वाली पीढ़ी को क्या परिभाषा देना चाहेंगे आप देशभक्ति की ? सोचिये जरा, क्या वाघा बॉर्डर पर जवानो का जोश और IND-PAK क्रिकेट मैच में खिलाडियों का जोश देख कर ही देशभक्ति जागती है ? हमारी देशभक्ति का इंडेक्स पाकिस्तान की करतूतों से ही प्रभावित होता है ऐसा क्यों। वो तो टेढ़ी दुम है कुत्ते की जिसको सीधी करने का काम हमारी सेना और सरकार का है और वो कर भी रहे है। सवाल यह है की आप और हम क्या गुणात्मक योगदान कर रहे है देश के सरोकारों, देश के हितो के लिए ?

में बताता हूँ क्या कर रहे है। कुछ लोग सरकार से "Selective" सवाल पूछ रहे है,  कुछ लोग सवाल पूछने वालो को पेल रहे है, कुछ लोग सरकार पर संदेह करते करते सेना पर संदेह कर रहे है, कुछ लोग न्यूट्रल दिखने की लालसा में सबको गालिया दे रहे है। यही देशप्रेम अगर आने वाली पीढ़ी को Pass-on हो गया तो सोचिये सिर्फ द्रोह और प्रेम बचेगा, देश का न जाने क्या होगा।

अगर सही मायने में देशभक्ति और देशप्रेम को प्रचारित करना है तो देश की हर अच्छी बुरी चीज से प्यार करना सिखाओ, अच्छी बातों की प्रशंसा करो और बुरी बातो को ठीक करने का मशविरा दो।

मेरी नज़र में देशप्रेम और देशभक्ति के और भी मायने है जो निचे लिख रहा हूँ और यकीन मानिये मैं थोड़ी बहुत कोशिश भी करता हूँ इन सब बातो पर अडिग रहने की।
मेरी नज़र में
ईमानदारी से टैक्स अदा करना देशप्रेम है।
सडको, बाज़ारो  और सामूहिक जगहों को स्वच्छ रखना देशप्रेम है।
पब्लिक प्रॉपर्टी जैसे ट्रैन, बस, बाग़ बगीचे उद्यान और इमारतों को हानि पहुंचने से बचाना देशप्रेम है।
सड़क सुरक्षा के लिए ट्रैफिक नियमो का पालन करना देशप्रेम है।
देश की सीमा और सीमा के भीतर सुरक्षा करने वाले सिपाहियों के लिए सम्मान का भाव रखना देशप्रेम है।
देश के दूसरे नागरिको के धार्मिक विचारो और क्षेत्रीय भाषाओ का सम्मान करना भी देशप्रेम है।
अपने बच्चो और आने वाली पीढ़ियों को देश के सही इतिहास और देश की संस्कृति से परिचित करवाना देशप्रेम है।
बिजली, जल, पेट्रोल की बचत करना और इसके लिए लोगो को जाग्रत करना भी देशप्रेम है।
पर्यावरण की रक्षा के लिए जो हो सके वो करना भी देशप्रेम है।
और सबसे बड़ी बात आप जो भी काम करते है उसमे पूरी ईमानदारी से अपना १००% योगदान देना भी देशप्रेम है।
और भी कुछ आप जोड़ सकते है तो कृपया जोड़िये और इस कड़ी को आगे बढाईये।


























Friday 2 June 2017

सुखी और सफल वैवाहिक जीवन के आधुनिक नुस्ख़े -1

सुखी और सफल वैवाहिक जीवन के आधुनिक नुस्ख़े

 अरे आप हंस क्यों रहे हो ? चुटकुला नहीं है। ऐसा होता है। वैसे सफल वैवाहिक जीवन होना अलग बात है, सुखी वैवाहिक जीवन होना दूसरी बात है और एक सुखी प्लस सफल का कॉम्बो वैवाहिक जीवन सबसे बड़ी बात है जो शायद आपको फिक्शनल सी लगे। लेकिन यकीन मानो सुखी, सफ़ल और ऊपर से वैवाहिक, ऐसा जीवन होता है इसी धरती पर होता है। झूट बोलू तो काला कुत्ता काटे (कुत्ता इसलिए क्योंकि काले कौवे आजकल हमारी लोकैलिटी में नहीं मिलते, वो पुराने लोग कहते है न कि  कौवा बोले तो अतिथि आ जाते है, इसीलिए अतिथियों के भय से हमने कौवो को मार भगाया, और अपने अपने घरो में कुत्ते पाल लिए है। )

 मुद्दे पर आते है, तो जनाब जिनका कट चूका है मतलब विवाह हो चूका है वो लोग ध्यान और मन लगा के पढ़िए और वो जिनकी बुद्धि अब तक सही सलामत है वो तो अवश्य पढ़े। अविवाहित इंसान सदैव ऐसा नहीं रहने वाला, क्योंकि किसी ने कहा है कि भारत में मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जो विकासशील हो न हो विवाहशील जरूर है । आप कितने ही अच्छे तैराक क्यों न हो विवाह रूपी दरिया में आपने डूब ही जाना है एक दिन।

पुरातन काल में तो हमारे पूर्वजो ने जैसे तैसे अपने जीवन को सुखी और सफल बना लिया था किन्तु मॉडर्न युग में आपको अगर एक सुखी और सफल वैवाहिक जीवन जीने की कला सीखनी है तो अपने आसपास गौर से देखना शुरू कीजिये।

हमने भी अपने आसपास की चीजों का थोड़ा अध्ययन किया और गूढ़ रहस्य का पता पड़ा की सोशल मीडिया वाले आधुनिक काल में स्वयं के चुने हुए शत्रु के साथ कैसे जीवन बिताया जाये। जी हाँ दोस्तों, मैंने  हाल ही में जाना कि सोशल मिडिया के जरिये आप सिर्फ सरकार ही नहीं चला सकते अपितु घर गृहस्थी और परिवार भी चला सकते है।

कैसे ?

निम्नलिखित बिंदुओं को पढ़े और आत्मसात करे। आज सोशल मीडिया का जमाना है उसका भरपूर उपयोग ही आपको बैकुंठ धाम का सुख देगा।

१. बीवी को कभी भी फेस-टू -फेस हैप्पी बर्थडे न बोले, बल्कि फेसबुक पर एक घटिया से शायर की चुराई हुयी तुकबंदी के साथ जन्मदिन की शुभकामनायें दें। (इसके लिए मुझे संपर्क करे, हाथोहाथ तुकबंदी करके देंगे वाज़िब दाम पर) अपनी फेसबुक पोस्ट में बताएं दुनिया को की आप कितने खुशनसीब है जो आपको ऐसी (ऐसी मतलब, वो जैसी है वैसे नहीं लिखना है उसका उलट बहुत तारीफों के साथ लिखना है ) बीवी मिली है। खबरदार जो अगर आपने यहाँ सच का एक बूँद भी लिखा, तो बे-मौत मारे जाओगे। (इसकी जिम्मेदारी हम नहीं लेंगे)

२. जन्मदिन पर आप उसके कुछ पुराने अच्छे से (फ़िल्टर और मेकअप वाले ) फोटोज़ भी पोस्ट कर सकते है। यहाँ भी  यह ध्यान रहे की कोई ऐसा फोटो गलती से भी न पोस्ट हो जाये जिसमे फ़िल्टर न लगा हो या बिना मेकअप वाला फोटो हो।अगर आपसे ऐसा कुछ हो जाता है तो एम्बुलेंस को एडवांस में फ़ोन करके रखिये।


३. अच्छा, आपको उसके अच्छे फोटोज नहीं मिल रहे है तो बढ़िया मौका है रिश्ते को मजबूत करने का, तुरंत एक DSLR खरीद डालिये, ऑटो मोड में बीवी के धड़ाधड़ फोटोज निकालिये। जहाँ भी आप जाइये कैमरा लेकर जाइये। और इन फोटोज को अच्छे से डबल प्रोसेस करके बीवी को कहिये अपलोड करे। फिर आप अपने आप को टैग करे और फोटोज पर होने वाली लाइक्स का हाफ सेंचुरी, सेंचुरी, डबल सेंटरी इत्यादि सेलिब्रेट जरूर करे।

४ . बीवी के द्वारा शेयर की हुयी हर पोस्ट को Like करे खासकर वो वाली पोस्ट्स जिसमे वो बता रही है की पिछले जनम में भी उसके पति आप थे, या उसके लिए सबसे अच्छा शहर पेरिस है, या उसकी शकल किसी सेलिब्रिटी से मिलती है या वो इस दुनिया में क्यों आयी है । इन सब पोस्ट्स को बराबर like करिये। क्योंकि इनमे वो आपको already टैग तो कर ही चुकी है ।

५ . जब भी कोई फ़िल्म देखने जाओ या किसी मॉल में तफरी ही करने जाओ तो फेसबुक पर चेक-इन करना न भूलें , और हाँ उस चेक-इन में अपनी बीवी को टैग करना तो कतई न भूलें। बता रहा हूँ ये सबसे लोकप्रिय नुस्खा है सामंजस्य बैठाने का।


६ . आप भले ही ५ स्टार होटल या किसी लक्ज़री रेस्टारेंट के बाजू में खड़े होकर पानीपुरी खा रहे हो लकिन फेसबुक पर चेक इन होटल या रेस्टॉरेंट का ही करे।

७ . बजट निकाल के हर साल विदेश नहीं तो कम से कम मनाली, नार्थ-ईस्ट इत्यादि जगहों पर जाकर ढेरो फोटो खिचवा के आये। ज्यादा कहीं नहीं तो महाबलेश्वर या गोवा ही चले जाये। फिर उन फोटोज को साल भर एक एक करके चिपकाते रहिये with the tagline "Golden memories" . ये बहुत प्रभावित करने वाला नुस्खा है।
(लोगो को नहीं अपनी घरवाली को प्रभावित करने वाला नुस्खा )

अरे अरे रुकिए अभी आपके दिमाग में सवाल आया होगा बीवी को हर जगह टैग करके वो खुश कैसे होगी ? तो जनाब  ऐसा है कि बीवी को जब आप ऐसी सुहानी, रोमांटिक और महँगी घटनाओ पर टैग करते हो तो वो वो मैसेज जाता है बीवी की सहेलियों को। और यही तो आपकी बीवी चाहती है।
और वो इतना ही नहीं चाहती, वो यह भी चाहती है की उसके साथ आपकी मुस्कुराती हुयी फोटो लगाने से आपकी भी सखियों तक मैसेज पहुंचे कि आप अपनी बीवी के साथ कितने खुश है।

८  .अगली बात , अपने ज़ेहन में २ तारीखें परमानेंट मार्कर से गोद के रखे एक तो बीवी का जन्मदिन और दूसरा खुद का बलिदान दिवस (शादी की सालगिरह) . जैसे ही सालगिरह आये वैसे ही फिर वही, एक अच्छा सा दार्शनिक सा पोस्ट डाले और अपनी अर्धांगिनी को सालगिरह विश करें। ( फेसबुक पर ही )

 
९  . जब भी आप कुछ महंगा सामान खरीदें खुद के पैसो से खुद के लिए, तो उसको ख़ुशी ख़ुशी इस्तेमाल करने के लिए पहले फेसबुक पर डिक्लेअर करे की यह खूबसूरत तोहफा आपको आपकी beloved wife ने दिया है और आप उसके शुक्रगुजार है। उसको फेसबुक पर ही थैंक यू भी कहें। यह बात हर चीज पर लागू होती है, जी हाँ आप कच्छे बनियान तौलिये को भी गिफ्ट डिक्लेअर कर सकते है।

१०  .  अंतिम बात ,आप अगर राजनीती, खेलकूद, वैश्विक समस्याएं, सामाजिक कुरीतियों या टेक्नोलॉजी से जुडी कोई पोस्ट कर रहे है तो गलती से भी उसमे अपनी बीवी को टैग न करे।  ये सारी बातें एलर्जिक हो सकती है और आप को इसके दुष्परिणाम भुगतने पड़ सकते है। लेकिन अगर आप बॉलीवुड या टीवी जगत से जुडी कुछ बात शेयर कर रहे है तो पक्का टैग करे।

और हाँ सबसे बड़ी बात, ये नुस्खे वाली बात अपनी बीवी को कतई न बताये, मेरा नाम लेकर तो बिलकुल नहीं। प्लीज हाथ जोड़कर विनती है।

अभी के लिए इन १० बातो पर अमल करिये, तब तक मैं कुछ और नुस्खे खोज के लाता हूँ।

मजा आये या न आये मेरी इस पोस्ट को लाइक जरूर करना सिर्फ यह जताने के लिए की आप एक भले मानस है। नहीं किया तो काला कुत्ता पीछे पड़ जाये

Sunday 2 April 2017

ट्रैन वाली लड़की

डिस्क्लेमर: यह लघुकथा पूर्णतः मेरी कल्पनाओ के परिंदों की उड़ान का परिणाम है।इसका किसी जीवित इंसान, पशु, पक्षी, भूत, प्रेत आदि से कोई सरोकार नही है। एक और बात, यह कथा किसी घटना, किताब, फ़िल्म या किसी और की रचना से प्रेरित भी नही है, अगर ऐसा हुआ तो यह मात्र एक संयोग होगा।
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मैं और शिखा आज बड़े दिनों बाद ट्रैन के स्लीपर कोच में एक साथ उर्दू वाला सफ़र कर रहे है। वैसे तो बीते कुछ वर्षो  में एक दूसरे के साथ अंग्रेजी वाला ही सफर किया है हमने। शायद यह आखिरी बार हो की हम साथ हो।
जी हाँ मैं उसे उसके घर छोड़ने जा रहा हूँ, हमेशा के लिए। आखिर कब तक सहेगी वो और मैं भी। बीते वर्षो में हमारा  रिश्ता गरम चाय से कोल्ड कॉफी में बदल चूका है। कहने सुनने को अब सिर्फ ताने और गालियां ही है।

शिखा विंडो सीट पर बैठी है और उसके सामने बीच वाली सीट पर मैं । वो खिड़की से बाहर अपनी सूजी आँखों से टकटकी लगाये देखे जा रही है और में उसे। उसे देखकर लगा की कहीं फिर से दिल की कार्यवाही शुरू न हो जाये। कहीं फिर से भावनाओ के वो अंगारे दहक न उठे जिनकी अग्नि में हमने फेरे लिए थे। अपने बुझे हुए रिश्ते के महक उठने का डर नहीं था मुझे । डर यह था की कहीं फिर से इस रिश्ते को संभाल पाने में नाकाम रहा तो ?

ट्रैन चल पड़ी थी मुझे शिखा के चेहरे की सिवाए न कुछ दिख रहा था और न कुछ सुनायी दे रहा था। इस ट्रैन की यात्रा से ६ साल पहले वाली एक ट्रैन यात्रा याद आ गयी। ६ साल पहले जब मुस्कराहट मेरे करीब रहा करती थी और मैं  इसी मुस्कान को बांटने की कोशिश किया करता था। यह वो उम्र थी जब किसी इंसान का दिल किसी तितली की तरह उड़ा करता है।

 ६ साल पहले

विंडो सीट पर वो आलथी पालथी मार के  किसी  किताब में अपनी ऑंखें चश्मे सहित गड़ाए हुए बैठी थी ,  उसके पास एक अंकलजी टाइप के भाईसाब बैठे थे जो उससे काफी दूरी पर थे।  मैने  अपना बैग ऊपर वाली सीट पर फेंका और उन दोनों के बीच में जा धंसा। वैसे भी मेरी मिडिल बर्थ थी तो लॉजिकली मैं सही बैठा था। थोड़ी देर तक मैं अपनी मुंडी इधर उधर करके, अपनी आँखें मसलते हुए उसको ध्यान से देखने की (ताड़ने की) कोशिश  करता रहा और सफल भी हुआ । 
अब मैं अगर यहाँ  उसके रंग रूप और उसके पहनावे की चर्चा न करू तो आप लोगो को "इमेजिन" करने में बड़ी ही दिक्कतें आएँगी, आपको तो आदत पड़  चुकी है अंग्रेजी किताबें पढ़ पढ़ के, जब तक पूरा सीन "डिस्क्राईब" न करो तब तक आपको "इंटरेस्ट" आता ही नहीं ।  तो लीजिये सुनिए उसने चटख नीले कलर का टॉप पहना हुआ था , (राउंड नेक फुल्ली कवर्ड) जिसपर अंग्रेजी में कुछ लिखा था जो ठीक से  मैं पढ़ नहीं पाया (बिकॉज़ ऑफ़ ऑब्वियस रीज़न्स)  और एक सतरंगी सा ढीला ढाला  पायजामा पहना हुआ था। चेहरे की नक्काशी शायद खुद भगवान ने फ़ुरसत में  बैठ के करी थी। बाल उसके घुंगराले थे, जो ज्यादा लम्बे नहीं थे और खुले हुए थे और बार बार उसके चश्मे के आगे आ कर उसको परेशान कर रहे थे। चश्मे के अंदर बड़ी बड़ी गोल गोल आँखें थी जो किताब के पन्नो पर बड़ी तेज़ी से बाएं -दायें घूमे जा रही थी।  मन तो हो रहा था की अपने हाथो से ही उसकी लटो को उसी के कान के पीछे खोंस दू, परन्तु फिर जल्दी ही अहसास हो गया की मैं कौन हूँ, वो कौन है और हम कहाँ है। कईं बार आपको आपकी औकात बड़ी जल्दी और टाइम पर याद आ जाती है तो आप शरीफो की श्रेणी में आ जाते हो और अगर समय पर अपनी औकात याद न आये और कोई ओर याद दिलाये तो फिर आप  शरीफ नहीं रह जाते।

In short कहु तो जिंदगी में कभी किसी ट्रैन के स्लीपर कोच में ऐसी लड़की मैंने आज तक नहीं देखी थी जैसी वो थी, ऐसी लड़की के लिए हमारा एक मित्र "रुई की गुड़िया" की उपाधि दिया करता था, बस समझ लो रुई की गुड़िया जैसी ही थी वो। अब तो उसका चित्रण आपके मस्तिष्क में हो ही चूका होगा।



इससे कुछ ही देर पहले: 

मैं भागता दौड़ता हुआ प्लेटफॉर्म ६ पर खड़ी संपर्क क्रांति एक्सप्रेस के स्लीपर कोच S-5 में जैसे तैसे दाखिल हुआ ही सही की ट्रैन चल पड़ी, कुछ एकाध मिनट भी लेट होता तो या तो चलती ट्रैन में लटकना पड़ता या स्टेशन पर ही लटका रहता। मैं बैंगलोर से दिल्ली जा रहा हूँ, टिकिट मैने करवाया था जो वेटिंग २३ से खिसक के ४ पर आ गया था परन्तु  इसके आगे न बढ़ सका। और तत्काल में हमसे टिकिट आज तक बुक नहीं हुआ, IRCTC पर तत्काल में  टिकिट बुक करना बिलकुल वैसा है जैसे किसी स्वयंवर में राजकुमारी से ब्याहना या पहली ही बार में IIT के लिए चुन लिए जाना। मैं  वेटिंग टिकिट के साथ ही चढ़ गया और TTE का पीछा तब तक नहीं छोड़ा जब तक की उसने मुझे झुंझलाकर ही सही एक सीट दे दी। मेरी वेटिंग वाली टिकिट पर S6-10 लिख के एक गोला बनाया और ४७५ रुपये की एक रसीद फाड़ दी। ( एक्स्ट्रा रुपये भी लिए उसने बिना रसीद के जो मैं यहाँ आपको बताना नहीं चाहता, दिल्ली वाला हूँ न, भ्रष्टाचार ख़िलाफ़)

टिकिट में सीट कन्फर्म पाकर मुझे बिलकुल वैसा अहसास हुआ जैसे मैनेजमेंट कोटे में एक प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमिशन मिलने पर हुआ था आज से ७ साल पहले।

मैं घूमता हुआ सीधा अपनी निर्धारित सीट पर पहुँचा तो अचानक से ट्रैन की बदबू एक अजीब सा सुकून देने वाली  खुशबू में बदल गयी।जिंदगी कुछ देर के लिए स्लो मोशन हो गयी। कम्पार्टमेंट की विंडो सीट पर वो आलथी पालथी मार के  किसी  किताब में अपनी ऑंखें चश्मे सहित गड़ाए हुए बैठी थी , उसके पास एक अंकलजी टाइप के भाई साब बैठे थे जो उससे काफी दूरी पर थे।  मैने  अपना बैग ऊपर वाली सीट पर फेंका और उन दोनों के बीच में जा धंसा। वैसे भी मेरी मिडिल बर्थ थी तो लॉजिकली मैं सही बैठा था। थोड़ी देर तक मैं अपनी मुंडी इधर उधर करके, अपनी आँखें मसलते हुए उसको ध्यान से देखने की (ताड़ने की) कोशिश  करता रहा और सफल भी हुआ।

नोवेम्बर का महीना था, शाम के ६ बज रहे थे और ट्रैन की खिड़की से अच्छी खासी ठंडी हवा आ रही थी, पर इन सब से बेखबर वो अपनी किताब को ऐसे पढ़े जा रही थी जैसे थोड़ी देर में TTE उसकी परीक्षा लेगा और वो  पास हो गयी तो उसका टिकिट अपग्रेड करके 1st AC कर देगा।
मैं भी इधर उधर देखता रहा और अपने मोबाइल से खेल करता बैठा रहा, इतने में खाने वाला आर्डर लेने आया तो पुरे कम्पार्टमेंट में मैं ही अभागा था जिसने ट्रैन के खाने का आर्डर दिया बाकी सब शायद अपना अपना खाना लेकर आये थे।
चलो, खाने वाले को देखकर ही सही, "रुई की गुड़िया" को याद तो आया की उसको भी भूख लग रही है। उसने अपने बैग में से डिब्बा निकाला और एक रोल किया हुआ पराठा लेकर खाने लगी, एक मिनट के लिए मेरी नाक, नज़र और दिमाग सिर्फ पराठे पर ही केंद्रित हो गए थे। खुशबू से मालूम पड़ रहा था की पराठे में आलू मटर की सब्जी और अचार का मसाला भरा हुआ था। उस पत्थर दिल ने "फॉर्मेलिटी" के लिए ही सही पर एक बार भी "ट्रैन एटिकेट्स" दिखाते हुए यह नहीं पूछा की "Would you like to Have it..?" . खैर जाने दो, मेरा भी शाही पनीर, दाल तड़का, जीरा राइस और तंदूरी रोटी आ चुके थे, हाँ हाँ वही ट्रैन वाला खाना जिसको मेने यह सब "इमॅजिन" करके जैसे तैसे खा लिया, बदले में मैंने भी किसी से नहीं पूछा "Would you like to have it..?.

रात के ९ बज चुके थे, ऊपर की बर्थ वाले अंकल ऊपर जाकर फ़ैल चुके थे, सामने भी अंकल आंटी जी चादर बिछा के, तकिये में हवा भर के गुड नाईट की तयारी कर चुके थे, सामने की मिडिल बर्थ उठाई जा चुकी थी और लगेज में चैन बाँधी जा चुकी थी। और इधर उसकी किताब अभी भी खत्म नहीं हुयी थी, भला कोई इतनी देर सतत कैसे पढ़ सकता है। इन सब के बीच मेरे फ़ोन की मैसेज बाजी चालू थी जो मैं रह रह कर "उससे" नज़रे चुराके किये जा रहा था ,
 ये मेसेज में अपनी छोटी बहन रिया को किये जा रहा था जो मेरी टांग खींचने में लगी थी।दर-असल हुआ ये की इस बार की छुट्टियों में घरवालो ने मेरे लिए कुछ ख़ास इंतेजाम करके रखा था। रिया उन्ही सब इंतजामो की पोल खोल रही थी। उसने मुझे बताया की कैसे मुझे बकरा बना कर शादी के लिए लड़की देखने ले जाया जायेगा।

यह उम्र कुछ ऐसी होती है की आदमी चाहता है की वो जिंदगी में कुछ तरक्की करे, कुछ नाम और बैंक-बैलेंस कमा ले, थोड़ा अपनी आज़ादी को खुलके जी ले और इसी समय घरवाले धर्मसंकट खड़ा कर देते है शादी जैसी बातें करके।

ठंडी बढ़ने लगी है, ट्रैन के पंखो को भी आराम दे दिया गया है और सारी खिड़कियों के शटर गिरा दिए है, सिवाए उसकी खिड़की के। उसने बहुत कोशिश करी खिड़की बंद करने की और फिर अंत में वो मकाम आ ही गया जिसका में बेसब्री से इन्तेजार कर रहा था।
                      -"can you please help me to shut this window ?"  उसने अपने गुलाब की पंखुड़ी जैसे होठो को पहली बार खोला और अपने मुख कमल से इतने सारे अंग्रेजी के शब्दो की अविरल धारा प्रवाहित कर दी की मुझे कुछ समझ नहीं आया। उसके अंग्रेजी शब्द मेरी समझ में बिलकुल नहीं आये इसलिए नहीं की मैं हिंदी माध्यम का विद्यार्थी रहा हूँ बलकि इस लिए की मुझे पहली बार "घिग्गी बंधना" मुहावरे का वास्तविक जीवन में अर्थ समझ आ रहा था। मैंने कुछ कहने के लिए मुँह खोला  किन्तु मेरे शब्द सरकारी अनुदान की तरह कहीं अटक  गए केवल मुँह  खुला रह गया। इससे पहले की मेरे खुले मुंह से लार टपकती उसने फिर कुछ कहा।

'एक्सक्यूज़ मी ? आप प्लीज् यह खिड़की बंद कर देंगे ?'
अबकी बार उसने थोड़ी जोर से बोला और हिंदी में भी बोला जो पूरा पूरा समझ में भी आया और मैंने हाँ में मुंडी हिला के खिड़की बंद करने का प्रयास किया, यह प्रयास मेने सनी देओल की  शैली में किया किन्तु KRK की शैली में असफल हुआ। आज ट्रैन की इस तुच्छ सी खिड़की ने जीवन का सबसे बड़ा पाठ पढ़ा दिया कि जिनके नसीब फूटे हो वो कितनी ही कोशिश कर ले उनसे न खिड़की बंद होनी है और न ही लड़की इम्प्रेस होनी है ।
दर-असल उस खिड़की की चिटकनी खराब थी जो लग ही नहीं रही थी सो काम ऐसे ही चलाना था।
अब हमारी बात शुरू होने को थी।

'let it be like that, let's enjoy AC in sleeper coach, आप को नींद आ रही हो तो बता दीजियेगा, सीट ऊपर कर लेना'  रुई की गुड़िया ने मेरी तरफ देख के कहा,  इस बार मेरे शब्द अटके नहीं और मैने कहा 'नहीं नहीं मुझे अभी नहीं सोना। वो क्या है की  जब तक की मैं  खुद सोना न चाहु, मुझे नींद नहीं आती, आपको सोना हो तो आप बता देना'
मैंने बड़ा ही अजीब और घटिया सा डाइलोग मारा था जिसका अहसास भी मुझे हो गया था।

'अरे वाह यह तो बड़ी अच्छी बात है की आप जब चाहो तब सो सकते है , It's great ability, you know ?'
मुझे समझ नहीं आया की तारीफ कर रही है या टांग खीच रही है , खैर जो भी हो मैंने हेहेहे हीही ही करके बात आयी गयी कर दीऔर बात आगे बढ़ाने के उद्देश्य से एक निहायती साधारण और गैरवाज़िब सवाल दाग दिया।

'आप दिल्ली जा रही हो ?'
"हाँ , और आप ?" (उसके मुँह से "आप" सुनके लग गया था की यह दिल्ली वाली तो नहीं है )
"मैं भी।"
"कुछ काम से या घर है आपका वहां ?" उसने यह सवाल पूछा जिसका जवाब ईमानदारी से दिया ही नहीं जा सकता था मैंने कहा की "हाँ दिल्ली में ही घर है मेरा, बस घरवालो से मिलने जा रहा हूँ, और आप ?"

"ओह्ह गुड, नहीं मैं तो यूँही फ्रेंड्स से मिलने जा रही हूँ और मेरी एक कज़िन भी रहती है वहां"

मैंने दिल्ली वाले टॉपिक को बदलने के लिए बैंगलोर का टॉपिक छेड़ा बिलकुल वैसे ही जैसे जॉब इंटरव्यू में आप कोशिश करते हो की  सवाल उसी टॉपिक के आसपास पूछे जाये जिस टॉपिक पर आप मुँह खोलकर फेंक सकते हो। मैंने पूछा की "बैंगलोर में आप क्या करती है ? आईटी में हो क्या ?"

"No no, I am not into IT, I am doing a course in journalism from Hyderabad, अभी छुट्टियों में बैंगलोर अपने घर गयी थी, अभी २ दिन दिल्ली में रहूंगी and then back to Hyderabad."

जब आपको कोई और प्रोफेशन का बंदा या बंदी मिल जाये तो आप अपने प्रोफेशन के बारे में सहूलियत से फेंक सकते हो ठीक वैसे ही जैसे नेता लोग अपने भाषणो में करते है।

कुछ देर हम यूँही एक दूसरे को अपने बारे में फेंकते रहे, कुछ रियलिटी तो कुछ फिक्शन और इतने में रात के १२ बज गए थे। अब मुझे जर्नलिज़्म की बातें स्कूल के लास्ट पीरियड वाले सब्जेक्ट जैसी लगने लगी थी परन्तु लास्ट लेक्चर में भी अगर टीचर इतनी खूबसूरत हो तो कौन कमबख्त चाहेगा की छुट्टी की घंटी बजे। लेकिन मेरी जिंदगी में ३ ही कमजोरियां है ,  खाना,सोना और लड़कियाँ और इनकी रेटिंग भी इसी क्रम में है। ज़ाहिर सी बात थी अब नींद आने को थी और मुझे सोने से कोई नहीं रोक सकता था। मैंने खिड़की बंद करने की एक और असफल कोशिश की। घर से निकलते वक़्त मैंने कुछ न्यूज़ पेपर्स अपने बैग में रखे थे यह सोच कर की अगर सीट न मिली तो कही भी यह पेपर्स बिछा के सो जाऊंगा। वही न्यूज़ पेपर्स काम आये और खिड़की को जैसे तैसे एयरटाइट पैक किया। लड़की के इम्प्रेस होने का तो पता नहीं पर खिड़की जरूर बंद हो गयी थी।

अभी मैंने अपनी मिडिल सीट उठा के सोने की तैयारी कर ली थी और अपनी "गुड नाईट" हो गयी थी। और वो भी अपने हिसाब से सो गयी थी।

सुबह उठे, गुड मॉर्निंग हुआ, चाय शाय  शेयरिंग हुयी और पूरा दिन गप्पे हांकने में और खाने पिने में बीत गया। हमने अपने नाम का आदान प्रदान भी किया। अगली सुबह गंतव्य याने दिल्ली के करीब पँहुच के जिंदगी में पहली बार लगा कि काश मंज़िल थोड़ी और दूर होती, काश के यह सफ़र यूँही उम्रभर चलता। खैर अब हम बिछड़ने को थे, उसकी आँखों को पढने की कोशिश कर ही रहा था की उसने गुड बाय बोल दिया और सरपट से भीड़ में न जाने कहाँ खो गयी।

मैं  भी अपने घर की और निकल गया। अजीब कीकश्मकश थी मुझे शादी के लिए लड़की देखने जाना था और में ट्रैन में ही उस अजनबी सी लड़की को दिल दे बैठा था , क्या यह वाकई में इश्क़ था या वो क्या कहते है अंग्रेजी में infatuation , समझ नहीं आ रहा था। वैसे जिस लड़की को देखने जाना था वो भी दिल्ली में नहीं कहीं और रहती है , यहाँ उसके मामा के यहाँ उसको बुलाया गया है।

अनमने मन से तैयार होकर निकल पड़ा पापा , मम्मी  और रिया के साथ लड़की देखने। रास्ते भर मुझे बस शिखा याने की ट्रैन वाली लड़की का ही ख़याल आता रहा।

लड़की वालो के यहाँ पहुँचे और लड़की के मामा मामी से सामना हुआ, कुछ देर मेरा इंटेरोगेशन करने के बाद उन्होंने आवाज़ लगायी शिखा बेटा  यहाँ आओ। और जैसे ही वो सामने आयी मेरे हलक से पानी सुख  गया, हाथ से रसगुल्ला छूट गया और न जाने कौन कौन से हार्मोन शरीर में मिक्स एंड मैच होके ऊधम मचाने लगे। जी हाँ, यह वही शिखा है जिसे हम ट्रैन में ही अपना दिल दे बैठे थे। उनका भी हाल कुछ ऐसा ही था।

बस फिर क्या था एक दो मुलाक़ातों में वो भी हम पर जां निसार कर बैठे और हमने शादी कर ली।


आज का दिन

शादी के ६ सालो में हम जिंदगी की आपाधापी में कहीं एक दूसरे से दूर से हो गए थे, काम का बोझ, शहर की दौड़ वाली दिनचर्या इंसानो को मशीन बना देती है। कईं दिनों के बाद, या सालो के बाद आज में शिखा को इतना गौर से देख रहा था, मुझे फिर से प्यार हो रहा था।  में शिखा से कितना कुछ कहना चाहता था -
शिखा, क्यों न हम एक कोशिश और करके देखे ? क्यों न हम फिर से प्यार में पड़ कर देखें ? क्यों न फिर से तुम "रुईं की गुड़िया" बन जाओ ? सब कुछ भुलाकर फिर से नयी शुरुआत करे ? खोल दो अपनी इन ज़ुल्फो को और मुझे सो जाने दो इनकी छाँव में, अपने नरम मुलायम हाथो से  छू कर मेरे इस पत्थर जैसे दिल को फिर धड़कना सीखा दो। प्लीज, एक बार फिर से अपनी कोमल मुस्कान से मेरे चेहरे पर मोती बिखरा दो। कितना कुछ माँगना चाहता हूँ तुमसे।






एकदम कोरी कल्पना को मैने पन्नो पर उतारने की एक छोटी कोशिश की है आशा है आपको पसंद आये। 

चित्र गूगल इमेज सर्च का परिणाम है , परंतु है बढ़िया।


Tuesday 14 June 2016

पहली बारिश



बारिश की पहली बौछार, बिजली की चमकार, मिट्टी की सौंधी महक और पहला -पहला प्यार। अरे अरे आप तो रोमांटिक होने लगे , रुकिए तो सही। श्रृंगार रस  से भरी ये बातें अब जवानी में अच्छी लगती है किन्तु बचपन में तो इन सबके मायने अलग ही हुआ करते थे।

वैसे तो इस पहली बारिश के मायने धरती पर निवास करने वाली हर प्रजाति के हर उम्र, लिंग, और व्यवसाय के हिसाब से अलग अलग हो सकते है। परन्तु मैँ आज संक्षिप्त में बचपन की ही बात करूँगा।

जून का आधा महीना बीत जाने के बाद जैसे ही मौसम सुहाना होने लगता, बादलों का झुण्ड आवारागर्दी करते हुए बरसने को बेचैन होता, बिजलियाँ लूप-झूप करने लगती वैसे ही हमारे दिलो की धड़कने बढ़ने लगतीं थी। यहाँ धड़कनो का ताल्लुक कतई रोमांटिक भावनाओ से नहीं है।  ये पहली बारिश संकेत होती थी गर्मी की छुट्टियां ख़त्म होने का, ये कड़कती बिजलियाँ कहती थी बंद करो ये क्रिकेट और गरजते बादल संदेसा लाते थे की अब स्कूल शुरू होने को है,और इसीलिए तेज़ होती थी धड़कने।



हर इंसान को ईश्वर का वरदान होता है की जो चीज वो टाल नहीं सकता उसके साथ ताल-मेल बैठा ही लेता है। फिर चाहे वो शादी हो, नौकरी हो या स्कूल। इसी प्रकार छुट्टियों का खत्म होना, स्कूल का खुलना और पढ़ाई का शुरू होना वो घटनाएँ थी जिन्हे टाला नहीं जा सकता था। इसलिए इन सब के साथ ताल-मेल बैठाया जाता था इस लालच के साथ की अब सब कुछ नया नया होने को है। नयी क्लास, नयी किताबें, नया बस्ता ( स्कूल बैग) नयी यूनिफार्म और भी कईं चीजे।

तब मिट्टी की खुशबू से ज्यादा अच्छी लगती थी नयी किताबों की महक, जिस प्रकार पहली पहली बूंदे सुखी पड़ी जमीन को भिगोती थी उसी प्रकार नयी-नयी पेंसिल से कोरी कोरी नोटबुक पर नाम लिखा जाता था। 
नाम -> प्रितेश दुबे 
विषय -> हिंदी 
कक्षा ->४ थी 
 जैसे पहली बारिश धरती को धानी चुनर से ढँक देती थी उसी प्रकार हम अपनी किताबो को भूरे कवर से ढंका करते थे। स्कूल खुलने के समय की खरीदी किसी शादी ब्याह की शॉपिंग से कम न होती थी। घर का माहौल स्कूलमय हो जाया करता था। पापा किताबो पर कवर चढ़ाते और माँ यूनिफार्म की फिटिंग सही करती। और हम अपने नए बस्ते को ज़माने में व्यस्त रहते। 
और हाँ WWF के पहलवानो वाले, डिज़्नी के कार्टून वाले और क्रिकेटर्स के फोटो वाले स्टिकर्स का तो बोलना भूल ही गया। 

ऐसा नहीं है की पहली बारिश सिर्फ हमारी धड़कने तेज़ करती थी बल्कि पापा को भी मन ही मन परेशान करती थी। स्कूल खुलने पर हमारा नया बस्ता तो नयी किताबो-कॉपियों से भर जाता था परन्तु शायद उनका बस्ता (बटुआ)खाली हो जाया करता था। जो चीज टाली  नहीं जा सकती उसके साथ ताल-मेल बिठाना भी तो उन्होंने ही सिखाया था तो वो भी इस परिस्थिति से ताल-मेल बैठा ही लेते थे हर बार। 

बारिश तब भी आती थी, बारिश अब भी आती है। स्कूल तब भी खुलते थे, स्कूल अब भी खुलते है। पापाओं की जेब तब भी खाली होती थी और अब भी खाली होती है। सब कुछ वैसा का वैसा है सिवाए बचपन के। बचपन अब वैसा नहीं रहा।



Tuesday 12 April 2016

तलाश - जीवन यात्रा

अँधेरी कोठरी में ढूँढता  हूँ एक दीपक उजाले के लिए 
जैसे भटका हुआ परिंदा ढूंढे कोई दरख़्त सुस्ताने के लिए 

चेहरो की इस भीड़ में तलाशता हूँ एक चेहरा जिसे कह सकु मैं अपना 
जैसे हर सुबह उठके याद करे कोई एक भुला हुआ सा सपना 

असंख्य दर्पणों में खोजता हूँ खुद की एक तस्वीर धुँधली सी 
जैसे हजारो बार किसी से मिलने पर भी उसकी हर मुलाक़ात लगे पहली सी 

कहने को तो जी रहा हूँ मैं, पर अभी भी तलाश है ज़िन्दगी की 
ऊपर वाला भी राह दिखाए तो कैसे, उसे भी तो खोज है सच्ची बंदगी की 

कुल मिलाकर बस बात इतनी सी है की 

ढूंढ रहा हूँ मैं अपनी आत्मा, जो खो गयी है कहीं मेरे ही भीतर 
जैसे तेज़ बहती नदी थक हार कर तलाशती है अपना समंदर 

यह जीवन एक यात्रा है अनन्त खोज की, जिसमे न जाने क्या ढूंढ रहा है हर कोई और इसी खोज में खो दे रहा है स्वयं को कहीं।


Sunday 26 July 2015

बंधन



डिस्क्लेमर/घोषणा/सावधान:
यह पोस्ट थोड़ी गंभीर हो सकती है, हो सकता है की इसमें हास्य का तड़का फीका रहे, यह भी हो सकता है की अंत तक थोड़ी भारी भारी सी लगने लगे; किन्तु विश्वास कीजिये इसे पूरा पढ़ने के बाद आप निस्संदेह प्रसन्नचित्त होंगे।

जैसा की शीर्षक से समझ आता है की यह लेख किसी प्रकार के बंधन या सम्बन्ध पर आधारित है। जी हाँ सबसे महत्त्वपूर्ण सम्बन्ध या नाता जिसे मानवता का नाता कहते है उसी पर आधारित है यह लेख। इस संसार में हर एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से किसी न किसी तरह जुड़ा हुआ है। भले ही आपस में कोई स्पष्ट सम्बन्ध दिखाई न दे किन्तु हमारा जीवन हर पल किसी न किसी के जीवन को प्रभावित करता है। अगर सिंपल भाषा में बात करू तो हम सब एक दूसरे से किसी न किसी तरह कनेक्टेड है। सुनने में थोड़ा अजीब लगे किन्तु हम इस तरह से जुड़े हुए है की किसी एक इंसान का दर्द हमे तकलीफ दे सकता है और किसी दूसरे कोने में दूसरे इंसान की एक मुस्कान हम सभी को ख़ुशी दे सकती है। और इस बात से आप इंकार नहीं कर सकते की किसी अनजाने इंसान की तकलीफ देखकर आपको जरा भी रंज नहीं होता या किसी मासूम बच्चे की हंसी देखकर आपको जरा भी ख़ुशी का अहसास नहीं होता। निस्संदेह होता ही होगा।

कहने का तात्पर्य यह है की जिस प्रकार किसी और का दुःख हमें दुखी कर सकता है, किसी और की ख़ुशी हमें खुश कर सकती है उसी प्रकार हमारा दुःख भी किसी और को दुखी करने के लिए पर्याप्त है। हम बचपन से ही सुनते-पढ़ते आ रहे है की जैसा बोओगे वैसा काटोगे, जैसी करनी वैसी भरणी या अंग्रेजी में Whatever goes around, comes around. यह चीज हमारे वचन और कर्म पर लागू होती है। हमारे द्वारा बोला गया कटु वचन जो भले ही हमने किसी अपने को बोला हो वो किसी और के जीवन को प्रभावित कर सकता है। इस चीज को समझने के लिए एक उदाहरण लेते है रामायण का, मुझे नहीं पता की आप में से कितनो को यह कहानी पता होगी। किन्तु इस बात को समझने के लिए बही इससे सटीक उदाहरण नहीं मिला।
आप जानते है अपनी पत्नी सीता को राम जी ने रावण के चंगुल से छुड़ाने के उपरांत पुनः परित्याग करते हुए जंगल में छोड़ दिया था। क्यों किया था ऐसा, जानते है आप ? दर-असल राम के राज्य में एक दिन एक शराबी धोबी नशे में धुत्त होकर अपनी पत्नी को सरे-राह पिट रहा था और भला बुरा कह रहा था। नशे में उसने कुछ ऐसे वचन कहे जिन्होंने इतिहास रच दिया। गुस्से और नशे के वश में उस धोबी ने अपनी पत्नी को गालियां देते हुए कहा :
"कुलटा है तू, निकल जा मेरे घर से, मैं राम के जैसा महान नहीं हूँ जो किसी और के पास रहकर आयी अपनी पत्नी को अपना ले। मैं तुझे त्यागता हूँ, मैं अधर्म नहीं कर सकता। एक दूषित नारी को अपने घर में जगह नहीं दे सकता। "

यह वचन इतने प्रभावी सिद्ध हुए की भगवान राम के दरबार तक जब यह बात पहुंची तो उनके पंडित पुरोहितो ने तुरंत उन्हें राजधर्म निभाने की सलाह देते हुए सीता का त्याग करने का आदेश दे दिया। और राम ने राजधर्म को परिवार से बड़ा मानते हुए सीता का त्याग कर दिया।

चित्र गूगल इमेज सर्च से
 
देखा आपने, एक शराबी ने नशे और गुस्से में आकर जो शब्द अपनी पत्नी को कहे वो शब्द सीता के जीवन पर भारी पड़े। कहने को तो एक मामूली सा  धोबी ही था वो जिसका राज-परिवार से कोई रिश्ता नहीं था परन्तु फिर भी वो सीता के जीवन में होने वाले उथल पुथल का कारण बना। इसी प्रकार से हमारे भी वचन अनजाने में पता नहीं किसके जीवन को नुकसान पंहुचा सकते है।इसलिए जो भी बोले सोच समझ कर बोले, कई बार कटु वचन हमारे मन में कुलबुलाते रहते है। ऐसे समय में चुप रहना ही न्यायसंगत होता है।

यह तो  हुयी हमारे द्वारा इस्तेमाल किये जाने वाले शब्दों की बात, इसी प्रकार से हमारे किये हुए कर्मो का असर सिर्फ हमारे जीवन पर ही नहीं होता अपितु समस्त संसार में किसी भी प्राणी के जीवन पर हो सकता है। इसको समझने के लिए हम समकालीन उदहारण लेते है।
मान लीजिये की आज आपने अपने ऑफिस में इतना अच्छा काम किया की शाम को देर तक बैठने की जरुरत नहीं पड़ी। आपका बॉस भी बड़ी ख़ुशी के साथ आज जल्दी घर निकल गया। जल्दी पंहुचा तो बॉस की बीवी बड़ी खुश हुयी और वो दोनों बड़े दिनों बाद बाहर डिनर पर जा सके। पत्नी इतनी खुश थी की बॉस को इस वीकेंड अपने दोस्तों के साथ पार्टी करने की इजाज़त देदी। वेटर को भी आज ज्यादा टिप मिली। आते आते पड़ौसी के बच्चे के लिए आइसक्रीम खरीद के ले आये तो वो बच्चा भी खुश हो गया। बच्चे को खुश देखकर उसके माँ बाप भी बड़े आनंदित हुए। (आपके जल्दी घर पँहुचने पर जो खुशियाँ आपको मिली होगी उसका हिसाब तो यहाँ हम रख ही नहीं रहे है। )


तो देखा आपने, आपके द्वारा ऑफिस में किया हुआ अच्छा काम कितने लोगो को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित कर गया। इसी प्रकार से अगर हम वही काम बिगाड़ देते, जिसको सुधारने के लिए देर रात तक आपको और बॉस को ऑफिस में ही बैठना पड़ता तो यह चैन ऑफ़ इवेंट्स बिलकुल उलटे होते।

शायद विज्ञान की भाषा में इसे रिप्पल इफ़ेक्ट की उपाधि दी गयी है किन्तु यह बचपन से सुनते आ रहे उस जुमले का ही विज्ञानी नाम है जिसे हम कहते है Whatever goes around, comes around. या जैसा करोगे वैसा भरोगे।

कल्पना कीजिये की अगर पूरी दुनिया में लोग अपने वचनो और कर्मो से किसी को दुःखी न करे,तो हो सकता है की एक दिन समस्त संसार से दुःखो का नाश हो जाये। हमारे अच्छे वचन और अच्छे कर्म हमे ही नहीं अपितु पुरे संसार को सुख देने की क्षमता रखते है।

अगर हम इस समाज के भले के लिए ज्यादा कुछ नहीं कर सकते तो कम से कम इतना तो कर ही सकते है की निश्चय करले की कटु शब्दों और घृणा से भरे वचनो का प्रयोग करने से बचेंगे और प्रयत्न करेंगे की कभी हमारे शब्द या कर्मो से किसी को कष्ट न पहुंचे।

ध्यान रखने वाली बात यह भी है की यह कर्म और वचन ऑनलाइन क्रीड़ाओं पर ज्यादा लागू होता है , क्योंकि आजकल प्रत्यक्ष जीवन में तो इतना हम किसी से मिलते जुलते नहीं जितनी बाते सोशल मिडिया पर करते है।
कोशिश करे की किसी घृणा से भरी पोस्ट को आगे बढ़ने से रोके और खुद तो ऐसे पोस्ट कदापि न डाले।

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नोट : ऊपर कही गयी बातों को अंग्रेजी में विज्ञान के लहजे में समझने के लिए Google सर्च करे "Ripple Effect" और "Butterfly effect".









Thursday 15 January 2015

जिंदगी के मासूम सवाल

सवाल जवाबो में उलझी इस जिंदगी में हम निरंतर जवाब देते हुए आगे बढ़ते रहते है। जिंदगी भी कभी चुप नहीं बैठती सवाल पे सवाल दागती ही रहती है। तभी तो परेशान होकर  गुलज़ार साहब ने लिखा "तुझसे नाराज नहीं जिंदगी, हैरान हूँ मैं, तेरे मासूम सवालो से परेशान हूँ मैं "

हमने जिंदगी के ऐसे ही कुछ "मासूम" से सवालो की एक सूचि संकलित की है जिनसे आपका पाला अवश्य ही पड़ा होगा। यह वो सवाल है जिनसे अरनब गोस्वामी भी एक बार तो परेशान हुआ ही होगा।




विद्यालय में पहली कक्षा से लेकर १२ वी कक्षा तक जो सवाल आपको बहुत तंग करते है उनमे से सबसे ऊपर है
 रिजल्ट कैसा रहा ? यह सवाल परीक्षा में पूछे गए सवालो से भी ज्यादा परेशान करता है। 
फिर 
क्या विषय ले रहे हो १०वी के बाद ? इस सवाल के जवाब में हम और हमारे घरवाले कभी एक मत नहीं होते। 

फिर जैसे तैसे १२वी हो जाये तो

कौन से कॉलेज में एडमिशन ले रहे हो ? (अगर कोई ढंग का कॉलेज मिल जाये तो ठीक नहीं तो अगले ३-४ साल भुगतो इस सवाल और इसके जवाब को )

फिर रिजल्ट कैसा रहा ? ( हर सेमेस्टर/साल, घूम के फिर यही सवाल आ ही जाता है )
अब कॉलेज जाना शुरू हो गया, और गलती से थोड़ा बन-ठन के निकले तो जो सवाल तैयार रहता है वो है 
किसी के साथ कोई चक्कर तो नहीं चल रहा ? ( यह सवाल डायरेक्ट नहीं पूछा जायेगा, घुमा फिरा के पूछेंगे)

कॉलेज खत्म होते होते अगला भयानक प्रश्न तैयार हो जाता है 
प्लेसमेंट हुआ ? कहाँ हुआ ? ( घरवालो से ज्यादा पड़ौसी चिंतित रहते है, जैसे उनके घर राशन नहीं आएगा अगर मेरा प्लेसमेंट नहीं हुआ तो )
हो गया तो नेक्स्ट क्वेश्चन 
कितना पैकेज है ? ( "बस इतना हमारे साढू के भतीजे का तो इतना है", अरे कितना भी हो कौनसा तुम्हारे अकाउंट में जाने है  )

फिर जैसे तैसे नौकरी मिल भी गयी तो हमारे ही अन्य दोस्त जो हमारी ही कंपनी में या अन्य कंपनी में काम कर रहे होते है, पूरा साल एक ही सवाल करेंगे,
अप्रैज़ल हुआ ? कितना हाईक मिला ?

और गलती से आप आय. टी. में हो तो तैयार रहो की साल में १२ बार यह सवाल भी आपको तंग करेगा की "फॉरेन-वॉरेन गए की नहीं एक बार भी "

फिर जिंदगी का सबसे ज्यादा दोहराने वाला और सबसे ज्यादा चिढ दिलाने वाला प्रश्न जो आपके जीवन से जुड़ा हर व्यक्ति आपसे पूछेगा
शादी कब कर रहे हो ?
शादी कब कर रहे हो ?
शादी कब कर रहे हो ? ( हर बार, हर कोई पूछेगा, जब तक की हो नहीं जाती,  इस सवाल पर तो पूरी किताब लिखी जा सकती है )

झल्ला के ही सही आप शादी कर लेते है और उसके तुरंत बाद, अगला यक्ष प्रश्न हाजिर हो जाता है
खुशखबरी कब दे रहे हो ? ( पहले साल )
खुशखबरी कब दे रहे हो ? ( दूसरे साल )
इस साल तो हो ही रहे हो न दो से तीन ( हर साल, जब तक की तीसरा आ नहीं जाता ) 
और जहाँ हमें एक खुशखबरी देने में १० बार सोचना पड़ता है वही हमारे नेता ४-४, ५-५ खुशखबरी देने को बाध्य कर रहे है। 

और खुशखबरी देने के २-३ साल बाद 
कौनसे स्कूल में डाल रहे हो ? (और गलती से आप पूछ लो की आप ही बताईये, तो तैयार रहिये रायचंदो से निपटने के लिए)

यह तो वो प्रश्न थे जो की दोस्त, रिश्तेदार, पड़ौसी, माँ-बाप, और भाई बहन आपसे पूछते रहते है। इनके तो आप जवाब भी दे सकते हो, तुरंत न सही थोड़ा वक्त लेकर। किन्तु कुछ सवाल ऐसे है जिनका जवाब आजतक नहीं खोजा जा सका है, और कोई जवाब देता भी है तो सीधे सीधे नहीं दे सकता। पहले तो सवाल ही कठीन और दूसरा यह सवाल पूछे जाते है आपकी धर्मपत्नी के द्वारा। याने की करेला वो भी नीम चढ़ा। 

तो दोस्तों पेश के जिंदगी के सबसे बड़े और खतरनाक २ सवाल जिन्होंने लगभग हर इंसान को एक बार तो परेशान किया ही होगा।

१. जानू, मैं सच में मोटी लगती हूँ ? ( सच कहो या झूठ या डिप्लोमेटिक हो जाओ, मेरे ख्याल से चुप रहना ज्यादा बेहतर है। )

और

२. आज खाने में क्या बनाना है ?(बाकी के सवाल तो कभी न कभी पीछा छोड़ ही देते है, परन्तु इस सवाल का हमारे जीवन से वैसा ही नाता है जैसा केजरीवाल का टीवी से, कांग्रेस का घोटालो से और मोदी का माइक से)



ऐसे ही आपके कोई पर्सनल सवाल हो जो इस सूचि में न हो और आपको लगता है की वो भी जीवन के सबसे जटिल प्रश्नो में से एक है तो कमेंट करिये। 

Thursday 4 December 2014

एक बंधुआ मज़दूर की कहानी

 क्या आप भगवान या भाग्य में यकीन रखते है ?

आप कहोगे की आज यह कौनसी बेतुकी बात कर रहे हो , खुद की मेहनत और हुनर के सिवा किसी पे यकीन करना बईमानी है। पढ़े लिखे नवजवान जो ठहरे आप, ऐसा ही सोचना होगा आपका, है ना ? अब भइया हम आपको एक सच्ची घटना पर आधारित कहानी सुना रहे है,  मतलब पढ़वा रहे है।  इसको पढ़कर आपको यकीन हो जायेगा की गरीब, ईमानदार और मेहनती लोगो को उनका ईश्वर उन्हें न्याय जरूर दिलाता है।

यह घटना मध्यप्रदेश  के एक छोटे से गाँव की है, गाँव मे अधिकांश लोग किसान है और सब के सब बड़े किसान है और उँची जाती से है तो ज़ाहिर सी बात है की खेतो में काम करने के लिए मज़दूर मिलना बहुत मुश्किल होता होगा किसानो के लिए। इसीलिए मज़दूरी के लिए बाहर से लोगो को लाया जाता है और अपने खेत पर रख कर साल भर काम करवाया जाता है।

ऐसे ही एक बड़े किसान परिवार जिसका मुखिया है रामप्रसाद ने मध्यप्रदेश के नीमाड क्षेत्र से एक मजदूर परिवार जिसका मुखिया है मोहनलाल  को अपने यहाँ लगभग बंधुआ मजदूर की हैसियत से रखा हुआ था। नाम मात्र का वेतन और खूब सारा काम करवाया जाता था उनसे. मोहन का परिवार भी इसी बात से खुश था की कम से कम २ वक़्त की रोटी तो मिल रही है पूरे परिवार को नही तो अपने क्षेत्र मे ना तो बारिश है ना ज़मीन ही इतनी उपजाऊ की कुछ काम मिल सकता।



गाँव हो या शहर, किसान हो या उद्योगपति, कॉम्पीटिशन के इस समय मे हर कोई अपने प्रतिद्वंदी को निचा करने का मौका ढूंढता है।  इसी गाँव के दूसरे किसान परिवार ने जिलाधीश कार्यालय में रामप्रसाद की शिकायत लगा दी।  शिकायत पर जिला कलेक्टर ने मोहन के  परिवार को बंधुआ मजदूर घोषित कर गाँव से रिहा कर के उनको वापस अपने गाँव भिजवा दिया।

अभी यहाँ पर सवाल यह है की सरकारी कायदो के मुताबिक कलेक्टर ने सही किया या मानवीय आधार पर गलत किया ?खैर जो भी हो , अभी एक परिवार बेरोज़गार हो गया था और दूसरी तरफ एक बड़े किसान की फसल पर विपरीत असर होने आया था।  सरकारी कायदो के मुताबिक बाहर के व्यक्ति को "जबरदस्ती" अपने खेत पर कम वेतन पर रखना और काम करवाना "बंधुआ मज़दूरी" की श्रेणी में आता है।

किसान परिवार के मुखिया रामप्रसाद ने पुनः उस मोहन के  परिवार को अपने  गांव में बुला लिया और इस बार उसको गांव का स्थाई निवासी बना लिया, याने की  उसके राशन कार्ड, वोटिंग कार्ड इत्यादि उसी गांव के बनवा दिए।  अब मोहन इसी गांव का निवासी हो गया और दिहाड़ी मज़दूरी पर रामप्रसाद के यहाँ काम करने लगा। 

६ महीने बाद गांव के पंचायत के चुनाव के समय इस गांव की सीट अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवार के लिए आरक्षित घोषित की गयी। और इस बार गांव को बगैर चुनाव के ही सरपंच मिल गया।  पुरे गांव में केवल एक ही परिवार था जो अनुसूचित जनजाति का था और जिसके पास गांव के स्थाई निवासी होने के वैध कागज़ भी थे।
जी हाँ दोस्तों, वो था मोहन का परिवार। और हाँ अब मोहन को उस गांव में मज़दूर नहीं मोहन सरपंच के नाम से जाना जाता है।

तो अब बताईये की यहाँ भाग्य ने अपना खेल खेला की नहीं ??



Thursday 20 November 2014

अजनबी हवा

यह कविता मेने आज से करीब ६- ७ साल पहले तब लिखी थी जब हम लोग कॉलेज से पास आउट होकर अपनी अपनी नौकरियों की तलाश में या जॉइनिंग के लिए निकल रहे थे, जब बीता हुआ कॉलेज का हर लम्हा आँखों के सामने फ़्लैश बैक की तरह घूम रहा था। हम सभी ने कॉलेज में एडमिशन इसी दिन के लिए तो  लिया था की एक दिन अच्छी कंपनी में नौकरी करने जायेंगे, पर जॉब मिलने की ख़ुशी से ज्यादा इस बात का अफ़सोस था की कॉलेज में बने दोस्त बिछड़ जायेंगे, अलग अलग शहरों और कंपनियों में चले जायेंगे।  और वैसे भी किसी महान शख्स ने कहा है की दोस्त कॉलेज लाइफ तक ही मिलते  है उसके बाद जो मिलते है वो तो सिर्फ कलीग्स होते है।

आईये एक "एमेच्योर कवि" की हिंदी -उर्दू  मिश्रित कविता की चंद पंक्तियों का आनंद लीजिये, और अच्छी लगे या बुरी , कमेंट करके बताईये।


कदमो को जुदा जुदा सी लगे यह जमीं। 
इन सांसो को हवाएँ भी लगने लगी अजनबी। 

सर पर है जो आसमाँ वो भी लगता अब अपना नहीं। 
लम्हा लम्हा गुजरता यह वक़्त क्यों थमता नहीं। 

इन अजनबी हवाओं के साथ बाह चले है सभी। 
कुछ ख्वाब पुरे हुए, कईं और  ख्वाब बाकी है अभी। 

राहें बदल जाएंगी, ख्वाब बदल जायेंगे। 
पर इन ख्वाबो को पनाह देंगी ऑंखें वही। 

हमने न सोचा था की ये पल इतनी जल्दी आएंगे। 
हँसते खेलते ये  साल यूँही बीत जायेंगे। 

जिस डोर से जिंदगी को नचाया था हमने कभी। 
उसी डोर पर कठपुतलियों की तरह नाचेंगे हम सभी। 

जंदगी नए मोड़ पर खड़ी है अपनी हकीक़त का आईना लेकर। 
और एक हम है जो इस वक़्त को थाम रहे है हाथो से पकड़ कर। 

यह वक़्त अब नहीं थम पायेगा, पहिये की तरह घूमता जायेगा। 
इन चंद सालो का हर एक लम्हा यादों के सुनहरे पिंजरे में कैद हो जायेगा। 

कॉलेज से भले ही हम हो रहे है विदा। 
पर खुद को कभी न समझना दोस्तों से जुदा। 

हम फिर मिल जायेंगे, वही हंगामा फिर मचाएंगे। 
मिल कर फिर इस जिंदगी को उसी की डोर से नचाएंगे। 

-प्रितेश दुबे 


Sunday 16 November 2014

आवारा लड़का

आईये आपका पुनः स्वागत है कट टू कट के इस नए लेख पर , अब तक की मेरी रचनाएँ हमारे दैनिक जीवन की उठा पटक को देख कर लिखी गयी है जिनमे मेने थोड़ा व्यंग्य का नमक भी छिड़का है।  आज संभवतया पहली बार यह एक कहानी नुमा लेख आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ जो की "फिक्शन" की श्रेणी में आता है जिसका शीर्षक है "आवारा लड़का "। आशा है आप इसे भी पसंद करेंगे। 

यह कहानी है एक १७ साल के किशोर की, जो अपने जीवन के उस दौर में है जहाँ हमें कोई एक राह चुन कर आगे बढ़ना होता है , समाज वाले इस उम्र को "कच्ची उम्र" भी कहते है क्योंकि अभी तक जीवन रूपी घड़े की मिटटी कच्ची ही होती है इसके बाद इसे जो रूप देदो वो रूप अख्तियार करके जीवन आगे बढ़ जाता है। यह कहानी है गोलू की। 



गोलू, बी. कॉम प्रथम वर्ष का छात्र है, इसका ज़्यादातर समय अपने दोस्तो मे इधर-उधर की सम-सामयिक चर्चाएँ करने मे गुजरता है, एक 17 साल का किशोर किस तरह की सम-सामयिक चर्चाओं मे व्यस्त रहता होगा इसका बखान करने की शायद आवश्यकता नहीं है, यह वो उम्र होती है जब इंसान के शरीर और मस्तिष्क पर "क्यूरीयोसिटी" नाम का वाइरस अपना क़ब्ज़ा जमा चुका होता है और गाहे-बगाहे दीमाग के किसी शांत पड़े कोने मे कुलबुलाता रहता हैं| अक्सर जब यह कुलबुलाता है तो इसे शांत करने के लिए इंसान कई तरह के इलाज के पीछे भागता है, वैसे सबसे सस्ता और कारगर इलाज है दोस्त।   जी हाँ  मन मे जो भी विकार हो, कोई कुलबुलाहट हो, सीधा जाके अपने दोस्तो से डिसकस करो, सारे वाइरस एकदम शांत हो जाते है| दोस्त या तो आपको सटीक तरीका बता देंगे जिससे सारी कुलबुलाहट मिट जाए, या फिर उस वाइरस को दीमाग के एक कोने से दूसरे कोने मे शिफ्ट कर देते है, और इसी प्रक्रिया मे थोड़ी देर के लिए सही, हमारा "क्यूरीयोसिटी"  वाइरस शांत रहता है|

बहर-हाल बात करते है गोलू की, गोलू ने अपनी कक्षा 12वी तक की पूरी पढ़ाई मोहल्ले के  "गवर्नमेंट बॉय्स उ. मा. विद्यालय" से ही पुरी की है, और उसके ज़्यादातर दोस्त भी उसी स्कूल से पास/फैल/आउट होके निकले है। गोलू के आधे से ज़्यादा दोस्तो को सितारो से जडीत मार्क-शीट मीली, और उन्होने इधर-उधर ट्राय करने के बाद अपने पिताओ के घरेलू व्यवसाय संभालने शुरू कर दिए|
परंतु गोलू थोड़ा ख़ुशनसीब निकला और ठिक-ठाक अंको से स्कूल कि दहलीज पार करने का सर्टिफिकट लेकर अब कॉलेज जाने लगा है। उसके नये नये दोस्त भी बने है , पूरी 100% पुरुष मंडली। शुद्ध रूप से लडको के स्कूल से पढकर आने वाले विद्यार्थी के लिये सबसे आसान काम होता है “बॉय्स ओनली ग्रूप बना लेना और फिर उस लडके कि जम्के खींचायी करना जो भुले से भी कन्याओ कि मंड्ली मे शामील हो गया हो। या यूँ कह लीजिए की अंगूर खट्टे के खट्टे ही रहते है|

अभी कॉलेज की ख़ास बात यह है की यहा गोलू के सिर्फ दीमाग मे ही वायरस छट्पटाता है आँखों मे कोई वाइरस नही कुलबुलाता, क्योंकि को-एड कॉलेज मे दाखिला लिया था, इसीलिए आँखें ठंडक पाने को कम ही तरसती थी|
गोलू और उसकी मंडली ज़्यादातर अपना समय ऐसी जगहो पर बीताते है जहाँ कन्याओ के झुंड का आना जाना ज्यदा होता हो।
 खैर अब तक यहाँ गोलू के बारे में जो कुछ भी बताया गया है उसको सुन पढ़ कर आपके दिमाग में उसका चरित्र चित्रण हो चूका होगा, यह सामान्य इंसानी बिमारी है की हम किसी के बारे में कुछ सुनते पढ़ते है तो उसके बारे में वैसी ही धारणा बना लेते है। 
वैसे गोलू आसानी से किसी का कहना नहीं सुनता परन्तु अगर बाइक पर कही जाके कोई काम करवाना हो तो आप बेझिझक गोलू को कह सकते है। मसलन, पड़ौसी शर्मा अंकल को सुबह सुबह ६ बजे उठकर रेलवे स्टेशन पहुचाना हो, बड़ी बहन को उसके कॉलेज छोड़ कर आना हो, पास वाली भाभी को बाजार लेके जाना हो या पीछे की गली में रहने वाली सलमा आपा को ब्यूटी पार्लर लेके जाना हो, गोलू बिना कोई झिक झिक किये इन सब का काम कर देता है। 
आज ही गोलू के घर में किरायेदार आंटी ने कहा "अरे गोलू भइया, आप कोचिंग जाओगे न, तो रास्ते में ही हमारी मौसी का घर पड़ता है, थोड़ा छोड़ दोगे क्या हमको ?" गोलू ने तपाक से कह दिया " अरे आंटी थोड़ा क्या आपको पूरा का पूरा वहां छोड़ दूंगा " ठहाके गूंजे और थोड़ी देर में गोलू अपनी बाइक पर आंटी को बिठा के निकल पड़ा। 

गोलू ने अपना बी.कॉम  प्रथम वर्ष पूरा कर लिया इसी तरह, देश में जिस तरह बारिश की कमी रही उसी तरह गोलू की मार्कशीट में भी थोड़ा सुखा पड़ा इस बार, परन्तु पास जरूर हो गया। 
गोलू की जिंदगी इसी तरह अब भी चल रही है, पास वाले चौहान अंकल से लेके पड़ोस वाले पटेल काका तक सब का कोई न कोई काम करता आ रहा है (बशर्ते उस काम में बाइक की आवश्यकता हो ना की बल की )

आईये अब आपको लेके चलते है इन्ही पड़ौसियों के घर, पास वाली शर्मा आंटी आज अपने बेटे को डांट रही थी "पढ़ ले थोड़ा, बैठ के किताब खोल लिया कर नहीं तो वो गोलू जैसा आवारा बन के घुमा करेगा इधर उधर " 
गोलू की बाइक पर अक्सर बाज़ार जाने वाली भाभी आज सलमा आपा से मिली तो कह रही थी की आज तो पुरे १० रुपये खर्च करके बस से बाजार जाना पड़ा नहीं तो वो आवारा गोलू छोड़ ही देता है हमेशा। पड़ोस वाले शर्मा जी को उनका सहकर्मी ट्रैन में बता रहा था की किस तरह उसको ऑटो वाले ने लूटा, तभी शर्मा जी बोले "यार अपना तो बढ़िया है , पड़ोस में एक बेवकूफ़ किसम का लड़का रहता है उसको जब बोलो तब बाइक लेके आ जाता है और स्टेशन छोड़ जाता है।"

गोलू को उसके अपने घर में भी कोई सीरियसली नहीं लेता है, वो अपने खुद के घर में भी एक "आवारा लड़के" की पदवी पा चूका है। 
 

Friday 27 June 2014

आईटी-सर्विसमैन के जीवन की सरगम


आप लोगो ने संगीत के ७ स्वरों के बारे में तो सुना ही है,  हाँ हाँ वही सा-रे -गा -मा  वाले साथ ही भाषा के स्वरों के बारे में भी आप जानते ही है।

जैसे अंग्रेजी भाषा में ५ स्वर (vowels) होते है,  संगीत में सात सुर होते है वैसे ही बेचारे आईटी-सर्विसमैन के जीवन की सरगम में  भी ५ स्वर होते है। 




अब आप सोचेंगे की क्या अनाप शनाप की ऊल जुलूल बातें करता रहता है, तो आगे पढ़िए और खुद ही निर्णय लीजिये की में क्या कह रहा हूँ।  अगर आप एक सच्चे आईटी-सर्विसमैन होंगे तो जान जायेंगे की मेरी बातों में कितनी सच्चाई है और अगर आप नॉन-आईटी के है तो आपको भी तो पता पड़े की आईटी वालो की लाइफ का कांटा किन ५ चीजो के चारो और घूमता है।

मेने कहा था की अंग्रेजी भाषा के स्वरों(a .e.i.o.u) की तरह ही आईटी-सर्विसमैन के जीवन के भी ५ स्वर है तो आईये शुरू करते है और जानते है इन स्वरों के बारे में।

१.' अ ' या A =Affair 

प्रथम स्वर है A माने Affair, मतलब कोई चक्कर या रास-लीला। जी हाँ जब भी एक फ्रेशर कोई आईटी कंपनी में दाखिल होता है तो या तो वो कॉलेज जमाने से ही कमिटेड स्टेटस में होता या अकेला होता है। कंपनी में दाखिल होते ही पहला स्वर अपने पुरे जोर शोर से इस नए नए आईटी-सर्विसमैन के कानो में गूंजने लगता है।  वो देखता है की कैसे उसकी आँखों के सामने ४-५ जोड़े ऐसे ही  बन गए और वो बस देखता रहा।  उसकी अंतरात्मा उसको धिक्कारने लगती है की कॉलेज के जमाने में तो कुछ बात बनी  नहीं अब तो कुछ कर।  और बेचारा शुरू हो जाता है अपनी अंतरात्मा की ललकार को चुप कराने की कोशिश में।

खैर अब हर किसी का अफेयर हो यह जरूरी भी नहीं कुछ न कुछ कारण या बहाना तो मिल ही जाता है "सिंगल" रहने का।  किन्तु यह प्रथम स्वर गूंजता ही रहता है उम्र भर।

२. 'इ' या "e " :Eatery Points


दूसरा स्वर जो गूंजता है वो हर किसी आईटी सर्विसमैन के कानो को नहीं फाड़ता यह उन लोगो के लिए है जो दूसरे शहरों से आये है।  E माने Eatery Points माने खाने पिने के अड्डे। वैसे एक इंजीनियर के लिए भोजन का युद्ध कोई बड़ी बात नहीं होती, वो हॉस्टल में रहके अच्छी तरह से जान जाता है की "भोजन समझौता" किसे कहते है।  परन्तु जब आप एक नए शहर में नौकरी करने जाते हो, अच्छा खासा पैसा कैफेटेरिया में देते हो और बदले में आपके हॉस्टल के खाने से भी बद्तर खाना मिले तो मन में फ़्रस्ट्रेशन वाली फीलिंग्स आती है तब ये दूसरा स्वर आपके कानो को चीरता हुआ गूंजता है की ढूंढो  कुछ अच्छे Eatery Points.


३. 'ई ' या I : Increment

अब यह मत कहना की यह तो सबसे ज्यादा दुखने वाला स्वर है, वैसे इसके बारे में ज्यादा कुछ लिखने से फायदा नहीं। तीसरा स्वर है I बोले तो इंक्रीमेंट याने बढ़ोत्तरी , जी हाँ सालाना तनख्वा में।  हम हमेशा सोचते है की यह स्वर कभी तो ऊँचा लगेगा, थोड़ा हाई पीच, परन्तु जैसा हम सोचते है अक्सर वैसा होता नहीं है हमारे जीवन में।  यह वाला स्वर सबसे नीचे की और बैठता है और बड़ी धीरे से लगता है। कभी कभी तो इस स्वर से कोई आवाज़ ही नहीं निकलती है।

४. 'ओ '  या O: Onsite 

अब आते है आईटी संगीत के चौथे स्वर पर तो दोस्तों यह स्वर हर आईटी सर्विसमैन लगाने की कोशिश करता है, किन्तु लगता सिर्फ भाग्यशाली लोगो का ही है बाकी तो बस मूह से हवा निकालते रह जाते है।

५. " ऊ " या U : U Turn:

अंतिम और सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण और सबसे ज्यादा दुखदायी और सबसे ज्यादा कर्कश स्वर है U-टर्न।
जी हाँ यहाँ बात हो रही है आपके मैनेजर के U-टर्न की , साल के शुरू में आपसे काम लेने के लिए आपको सुन्दर , हसीं सपने दिखाए जाते है फिर चाहे वो सालाना हाइक  हो, ओनसाईट  हो, प्रमोशन हो या प्रोजेक्ट से रिलीज़  हो।  आपको इनमे से कई तरह के प्रलोभन दिए जाते है, वो देता जाता है और आप लेते जाते हो।  असल में होता इसके विपरीत है।  साल के अंत तक जब आप अपने सपनो के वाउचर  को रिडीम करवाने जाते हो तो मिलता है एक तड़कता  भडकता  हुआ सा U Turn. आप फिर से जुट जाते हो काम में इसी आस में की कभी तो यह सिलसिला खत्म होगा।


तो, देखा आपने की एक आईटी सर्विसमैन के जीवन के ५ स्वर इतने आसान नहीं है जितना की दिखाई देते है, संगीत के ७ स्वरों को ठीक से लगाने के लिए जितना परिश्रम करना पड़ता है उससे ज्यादा परिश्रम आईटी के इन ५ स्वरों को ठीक से लगाने में करना पड़ता है।


..................................................चित्र गूगल महाराज के सौजन्य से 

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